धार्मिक वर्चस्व नहीं, सौहार्द की जरूरत
भारत की आजादी से पूर्व अंगरेजों ने इस बात की आशंका जतायी थी कि अगर भारत को आजाद घोषित कर दिया गया, तो यह देश परस्पर विरोधी धार्मिक और नस्लीय समूह के लोगों की लड़ाई का अखाड़ा बन जायेगा. हालांकि यह चिंता पूरी तरह से सच नहीं, पर इसके कुछ नमूने आजादी के बाद से […]
भारत की आजादी से पूर्व अंगरेजों ने इस बात की आशंका जतायी थी कि अगर भारत को आजाद घोषित कर दिया गया, तो यह देश परस्पर विरोधी धार्मिक और नस्लीय समूह के लोगों की लड़ाई का अखाड़ा बन जायेगा. हालांकि यह चिंता पूरी तरह से सच नहीं, पर इसके कुछ नमूने आजादी के बाद से अब तक के सफर में अक्सर दिख जाते हैं
आजादी के बाद अब तक देश ने 60 से अधिक दंगों को झेला है, जिसमें से ज्यादातर सांप्रदायिक रहे और जिसके कारण हजारों लोग मौत के घाट उतार दिये गये. पिछले कुछ दिनों में देश की फिजा जैसे बदली है, उससे यह तो स्पष्ट हो गया है कि सांप्रदायिक ताकतों की जड़ें पहले की अपेक्षा ज्यादा पोषित हुई हैं
धार्मिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक विवधता वाला राष्ट्र, जो इतनी विवधताओं के बाद भी अहिंसा, एकता, धार्मिक एवं सामाजिक सौहार्द जैसे गुणों के लिए जगजाहिर है, उसने आखिर कौन से नैतिकता के पतन की आपदा झेली है जिसके कारण इसके धरातल पर आज धर्म के नाम पर लोग एक दूसरे के खून के प्यासे होते जा रहे हैं़ गद्दी पर विराजमान हुक्मरान भी मूक दर्शक बन बैठे हैं और जब कभी उनका मौन टूटता है तो उनके होंठों से उपदेशों की पंखुड़ियां झरती हैं
किसी भी दंगे के वक्त उन्मादी और आतंकित भीड़ के रोष के पीछे चंद लम्हों का अनुभव अथवा छोटी सी घटना कारण नहीं होती, बल्कि उस उन्माद के पीछे छोटी-छोटी कड़ियों का एक लंबा ताना-बाना होता है़ किसी भी धर्म में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है.
अत्यधिक हिंसक होने और विवेक का प्रयोग ना करने से ही ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया जाता है़ ऐसी घटनाएं नाकाम सरकारी तंत्र से ज्यादा बुद्धिहीन, संवेदनहीन और विचारहीन समाज को भी प्रदर्शित करती हैं.
– शुभम श्रीवास्तव, ई-मेल से