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हर पुरस्कार कुछ कहता है

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार यह तो प्राय: सभी टीवी-धारावाहिक देखनेवालों को, और उनकी कृपा से न देखनेवालों को भी, मालूम ही होगा कि हर घर कुछ कहता है. ठीक उसी तरह से, जैसे कि धूम्रपान न करनेवालों को भी धूम्रपान करनेवालों की कृपा से धूम्रपान करने का कुछ न कुछ मजा लेना पड़ जाता […]

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

यह तो प्राय: सभी टीवी-धारावाहिक देखनेवालों को, और उनकी कृपा से न देखनेवालों को भी, मालूम ही होगा कि हर घर कुछ कहता है. ठीक उसी तरह से, जैसे कि धूम्रपान न करनेवालों को भी धूम्रपान करनेवालों की कृपा से धूम्रपान करने का कुछ न कुछ मजा लेना पड़ जाता है.

पैसिव स्मोकर की तरह उन्हें भी पैसिव दर्शक नहीं तो कम-से-कम पैसिव श्रोता तो बनना ही पड़ता है. टीवी-धारावाहिक देखनेवाले दयालु और परोपकारी होने के कारण अपनी टीवी इतनी तेज आवाज में चला कर रखते हैं कि आस-पड़ोस वाले भी उनके पसंदीदा धारावाहिक देखने से वंचित न रह जाएं! इसमें पड़ोसियों की इच्छा-अनिच्छा कुछ मायने नहीं रखती, टीवी-दर्शन का यह अतिरिक्त डोज उन्हें चाहे-अनचाहे लेना ही पड़ता है.

लेकिन यह कम ही लोगों को मालूम होगा कि हर घर ही कुछ नहीं कहता, बल्कि उस घर में रखा पुरस्कार भी, बहुत-कुछ कहता है. भारत में पुरस्कारों की हालत भी यहां की लड़कियों जैसी ही है. विदेशों में उनकी हालत ऐसी नहीं है, इसका मैं कोई दावा नहीं कर रहा हूं. अभिनेता मनोज कुमार की तरह मैं भी भारत का रहनेवाला हूं, इसलिए भारत की ही बात सुनाता हूं.

आम तौर पर जिस तरह लड़कियों से पूछे बिना ही उनकी शादी तय कर दी जाती है, उसी तरह पुरस्कारों से भी पूछे बिना ही उनका फैसला कर दिया जाता है. लड़कियों के मामले में जिस तरह उनके मां-बाप और लड़के वाले ही मिल कर उनका नसीब तय कर देते हैं, उसी तरह ज्यादातर पुरस्कारों के मामले में भी अकादमियां और लेखक ही मिल कर यह विधान रच देते हैं कि किस पुरस्कार का हकदार कौन होगा.

शादी के बाद जिस तरह गंजा, मोटा, लंगड़ा, लूला जैसा भी हो, पति ही लड़की का एकमात्र देवता रह जाता है, उसी तरह पुरस्कार के लिए भी वह लेखक ही उसका देवता हो जाता है, जिसके पल्ले उसे बांध दिया जाता है, फिर चाहे वह जैसा भी हो. इस तरह औरत ही अबला नहीं होती हमारे यहां, बहुत से पुरस्कार भी काफी अबले होते हैं और उनकी आंखों में भी पानी होता है, आंचल में दूध भले ही होता हो या न होता हो.

एक दिन मेरा साहित्य के एक बड़े डॉन के यहां जाना हुआ, जिसने बिना किसी खास साहित्यिक योगदान के केवल जुगाड़ के बल पर सभी संस्थाओं में इतनी गहरी पैठ बना रखी है कि इतिहास के लिए भी उसे खारिज करने हेतु पकड़ना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन हो गया है. उसके बैठकखाने में छोटे-बड़े कई पुरस्कार सजे थे. मुझे अचंभित देख खुश होकर उसने कहा कि आ जाओ, अचंभित होने की जरूरत नहीं है, ये सारे पुरस्कार लोगों को नर्वस करने के लिए यहां रखे गये हैं.

मुझे बिठा कर जैसे ही वह अंदर गया, ऐसा लगा मानो वे पुरस्कार बेबस-से कुछ कह रहे हों.

मैंने उन्हें सहानुभूतिपूर्वक देखा, तो वे कहते प्रतीत हुए कि भाई साहब, हमें यहां से ले चलो, हमारा यहां दम घुटता है. यह नालायक आदमी तो हमें लौटाता भी नहीं. हमारा बस चले, तो खुद यहां से चले जाएं, पर क्या करें, जब से हमें खरीद कर लाया है, तब से उसने ऐसे ही हमें बैठकखाने में सजा कर रखा हुआ है.

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