Loading election data...

सवालों के कठघरे में कौन खड़ा है!

पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार एम एम कलबुर्गी की हत्या कर्नाटक में हुई, जहां कांग्रेस की सरकार है. अखलाक की हत्या उत्तर प्रदेश में हुई, जहां सपा की सरकार है. गुलाम अली और कसूरी के कार्यक्रम का विरोध शिवसेना ने किया, जो बीजेपी के साथ सत्ता में है. चारों घटनाएं तीन अलग-अलग राज्यों में हुईं […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 17, 2015 1:39 AM
पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
एम एम कलबुर्गी की हत्या कर्नाटक में हुई, जहां कांग्रेस की सरकार है. अखलाक की हत्या उत्तर प्रदेश में हुई, जहां सपा की सरकार है. गुलाम अली और कसूरी के कार्यक्रम का विरोध शिवसेना ने किया, जो बीजेपी के साथ सत्ता में है.
चारों घटनाएं तीन अलग-अलग राज्यों में हुईं और सारे मुद्दे कानून-व्यवस्था से जुड़े हों, तो इसमें केंद्र सरकार की कोई भूमिका हो भी कैसे सकती है! लेकिन किसी राज्य में कानून-व्यवस्था काम ना करे, तो केंद्र सरकार राज्यपाल के जरिये हालात को परखती भी है और राज्य को नोटिस थमा कर चेताती भी है.
केंद्र सरकार ने इन राज्यों को किसी स्तर पर नहीं चेताया. राज्यपाल को रिपोर्ट भेजने तक के लिए नहीं कहा. तो क्या प्रधानमंत्री इस सच को समझ नहीं पाये कि अगर हर घटना के तार कट्टर हिंदुत्व और कट्टर राष्ट्रवाद से जुड़े हैं और केंद्र सरकार किसी भी घटना को लेकर संवैधानिक प्रक्रिया को नहीं अपना रही है, तो सवाल उसी की भूमिका को लेकर उठेंगे.
इन घटनाओं के मर्म को समझें, तो कलबुर्गी ने जून 2014 में अंधविश्वास के खिलाफ बेंगलुरु में हिंदुओं की मूर्ति पूजा से लेकर नग्न मूर्तियों पर सवाल उठाये थे, जिसका विरोध विहिप, बजरंग दल और हिंदू सेना ने खुल कर किया. दो महीने बाद ही कलबुर्गी की हत्या कर दी गयी, हत्यारे आराम से निकल गये और आजतक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई.
सवाल उठना वाजिब है. साहित्य अकादमी ने एक विरोध पत्र तक नहीं निकाला, जबकि अकादमी उन्हेंसम्मानित कर चुकी थी.
दादरी में अखलाक की हत्या के पीछे गोमांस रहा. गोवध का सवाल संघ परिवार ने बार-बार उठाया है.
लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी ने भी गुलाबी क्रांति शब्द के जरिये गोवध का सवाल उठाया था. यह अलग मसला है कि देश में बीफ का निर्यात बीते साल भर में इतना बढ़ा कि भारत दुनिया में नंबर एक पर आ गया. यानी चाहे-अनचाहे अखलाक की हत्या, बीफ का सवाल, गोवध के मसले उसी राजनीति से टकराये, जिसने कभी मुद्दों के आसरे इस भावना को छुआ. उसके बाद गुलाम अली और खुर्शीद महमूद कसूरी के कार्यक्रम कथित राष्ट्रवाद के शिकार हुए, क्योंकि शिवसेना ने सीमा पर पाकिस्तानी हरकत का जवाब दिया. पाकिस्तान की हर हरकत का जवाब देने की यही सोच बीजेपी की भी सत्ता में आने से पहले रही है.
और सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने इस पर कूटनीतिक तरीके से सोचना शुरू किया, तो शिवसेना खड़ी हो गयी. क्योंकि शिवसेना को कूटनीति की नहीं, उस राजनीतिक जमीन पर कब्जे की जरूरत है, जिसे बीजेपी विकास का नाम लेकर छोड़ रही है. इसीलिए बेहद बारीक राजनीति करते हुए शिवसेना ने नरेंद्र मोदी को याद भी किया, तो गोधरा और अहमदाबाद से जुड़ी पहचान के साथ.
कलबुर्गी या दादरी के सामानांतर सामाजिक-राजनीतिक तौर पर इन सभी घटनाओं की शुरुआत जहां से हुई, उसके पीछे उसी विचारधारा का उफान रहा, जिसके पक्ष में बीजेपी के कई नेता रहे हैं और इन नेताओं को ना तो बीजेपी हाइकमान कभी शांत कर पाया और ना ही संघ परिवार ने कभी कहा कि इनके बोलने से मोदी सरकार की छवि बिगड़ सकती है. मुश्किल यह भी रही कि बीजेपी सांसदों तक ने धर्म को राजनीति से जोड़ने में कभी कोई कोताही नहीं बरती.
और सांसद होते हुए भी संविधान की मर्यादा से इतर निजी भावनाओं में ही उबाल पैदा किया. इस रास्ते पर अपने दायरे में अगर संगीत सोम चले, तो फिर अपने राजनीतिक दायरे में लालू प्रसाद भी बोले कि गोमांस तो हिंदू भी खाता है.
बिहार में जातीय राजनीति के उबाल के लिए धर्म का इस्तेमाल किया गया, तो देशभर में धर्म में उबाल के जरिये राजनीति का इस्तेमाल किया गया. इसलिए कौन छद्म धर्मनिरपेक्ष है या कौन सांप्रदायिक, यह सवाल मौजूदा वक्त में कोई भी उछाले, वह सियासी राजनीति का हिस्सा माना ही जायेगा.
देश में जो माहौल बन रहा है उसमें कटघरे से कोई बाहर है, यह कटघरे पर सवाल उठानेवाला भी नहीं कह सकता. तो सवाल तीन हैं. पहला, क्या देश में सत्ता परिवर्तन का मतलब विचारधारा परिवर्तन है? दूसरा, क्या विचारधाराओं का टकराव इतिहास तक को बदलने पर आमादा है?
और तीसरा, क्या टकराव की सियासत के सामने पहली बार जनता को लगने लगा है कि वह किस तरफ खड़ी है? ये सवाल इसलिए, क्योंकि मोदी सरकार के प्रभावी मंत्री अरुण जेटली साहित्यकारों के विरोध को कागजी बगावत करार देते हैं और यह सवाल उठाने से नहीं कतराते हैं कि इससे पहले कभी साहित्यकारों ने इस तरह सम्मान वापस क्यों नहीं किया? जो सवाल जेटली ने उठाये, वे अपनी जगह सही हो सकते हैं.
मसलन, 75 में इमरजेंसी के वक्त सम्मान क्यों नहीं लौटाये? 84 के दंगों के वक्त विरोध क्यों नहीं हुआ? 89 के भागलपुर दंगे या 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के वक्त विरोध क्यों नहीं हुआ? तो इसका जवाब यह भी हो सकता है कि आपातकाल के वक्त सीपीआइ इंदिरा गांधी का समर्थन दे रही थी. और जिस शिवसेना के साथ बीजेपी खड़ी है, उस शिवसेना के मुखिया बालासाहेब ठाकरे भी आपातकाल को सही ठहरा रहे थे.
और तमाम लेखकों को या तो गिरफ्तार कर लिया गया था, या सभी नजरबंद या भूमिगत हो गये थे. फिर ब्लू स्टार के वक्त इंदिरा गांधी का विरोध करते हुए खुशवंत सिंह ने सम्मान लौटाया था. भागलपुर दंगों के तुरंत बाद तो बिहार में कांग्रेस की सत्ता ही जनता ने कुछ इस तरह बदली की आज तक कांग्रेस वहां सत्ता में लौट नहीं पायी.
तो समझना यह भी होगा कि साहित्यकारों की आवाज देश में चाहे जितनी कम नजर आती हो, लेकिन दुनियाभर में साहित्यकारों का मान-सम्मान है.
साहित्यकारों के नजरिये को कितना महत्वपूर्ण माना जाता है, यह फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले से भी समझा जा सकता है, जहां सलमान रुशदी को आमंत्रित किया गया, तो ईरान ने विरोध कर दिया. पर आयोजकों ने ईरान के विरोध को दरकिनार करते हुए रुशदी को विशेष आमंत्रित श्रेणी में रखा, क्योंकि अभिव्यक्ति की आजादी फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले की थीम भी है.
तो सवाल यह नहीं है कि देश में सत्ता परिवर्तन के साथ विचारधारा के बदलाव को ही आखिरी सच मान लिया जाये. सवाल यह है कि कलबुर्गी भी देश के नागरिक थे और अखलाक भी और सम्मान लौटाते साहित्यकार भी देश के नागरिक हैं. इसलिए यदि राजनीतिक सत्ता में ही सारी ताकत सिमटी हुई है, तो फिर हर नागरिक के एहसास को समझना भी राजनीतिक सत्ता का ही काम है.

Next Article

Exit mobile version