धर्मगुरुओं-नेताओं का गंठजोड़
।।विश्वनाथ सचदेव।।(वरिष्ठ पत्रकार) आसाराम बापू जेल में हैं. उनके बेटे नारायण साईं ये पंक्तियां लिखे जाने तक फरार हैं. दोनों पर अपहरण से लेकर बलात्कार तक के गंभीर आरोप हैं. अभी नये-नये आरोप लग भी रहे है. पुलिस अपना काम कर रही है और उम्मीद है कानून भी अपना काम करेगा. अपराधी को उसके किये […]
।।विश्वनाथ सचदेव।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
आसाराम बापू जेल में हैं. उनके बेटे नारायण साईं ये पंक्तियां लिखे जाने तक फरार हैं. दोनों पर अपहरण से लेकर बलात्कार तक के गंभीर आरोप हैं. अभी नये-नये आरोप लग भी रहे है. पुलिस अपना काम कर रही है और उम्मीद है कानून भी अपना काम करेगा. अपराधी को उसके किये की सजा मिलनी ही चाहिए- चाहे वह कितना ही प्रभावशाली व्यक्ति क्यों न हो. वैसे, यह सजा भी अपने-आप में कम नहीं है कि आसाराम को भगवान माननेवाले हजारों भक्त खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि इसका पूरा सच जल्द जनता के सामने आयेगा.
आसाराम-कांड और ऐसे अन्य कांड स्वाभाविक रूप से मीडिया की सुर्खियां बनते हैं. इस कांड में भी ऐसा हुआ. जहां तक समाचार जनता तक पहुंचाने की बात है, इसमें कहीं कुछ गलत नहीं है. अब भी कुछ समाचार चैनल इस कांड को ‘टीआरपी’ बढ़ाने का साधन मान कर चल रहे हैं. बावजूद इसके, यह मानना पड़ेगा कि इस कांड में कुल मिला कर मीडिया ने एक जिम्मेवार भूमिका निभायी है. लेकिन, क्या इस कांड को सिर्फ इस दृष्टि से देखना चाहिए कि एक प्रभावशाली कथित आध्यात्मिक गुरु ने एक घिनौना अपराध किया है और उसे इसकी उचित सजा मिलनी चाहिए? बात यहीं खत्म नहीं होती, वस्तुत: बात यहां से शुरू होनी चाहिए. जिस मुद्दे पर मीडिया में, और समाज में, चर्चा होनी चाहिए-और नहीं हो रही है- वह यह है कि कोई व्यक्ति ‘आसाराम’ कैसे बन जाता है? समाज और व्यवस्था के वे कौन से तत्व हैं, जो किसी व्यक्ति को ‘आसाराम’ बनाते हैं? कौन देता है ऐसे आसारामों को प्रश्रय? कैसे और क्यों लाखों-करोड़ों लोग किसी आसाराम के झांसे में आते हैं?
यहां यह बात भी स्पष्ट होनी चाहिए कि सभी धर्मगुरु ‘आसाराम’ नहीं हैं. हमें अध्यात्म और तथाकथित धर्मो में भी भेद करना होगा. इसके बाद यह बात रेखांकित होनी चाहिए कि दुर्भाग्य से आज हमारे देश में ऐसे बाबाओं की कोई कमी नहीं है जो धर्मभीरु जनता को धर्म के नाम पर पाखंड की खुराक बेच रहे हैं. यह भी कि तथाकथित धर्मगुरु ‘चमत्कारी शक्तियों’ के नाम पर भोली-भाली श्रद्धालु जनता को बरगलाने में भी सफल हो जाते हैं. और फिर खुद को भगवान बतानेवाले ये धर्म के सौदागर करोड़ों-अरबों की संपत्ति के मालिक बन जाते हैं. इस पर सवाल उठानेवाले को धर्म-विरोधी बता कर परेशान किया जाता है. सवाल है कि जनता बहकावे में क्यों आती है? जवाब आसान है- हमारा समाज असुरक्षा, आशंका की भावना से ग्रस्त है. इसलिए वह कथित धार्मिक विश्वासों का सहारा लेता है. सवाल है कि इस कथित सहारे को मजबूती का आभास और कथित वैधता कैसे मिलती है? जवाब है कि हमारे अधिकतर नेता ऐसे तथाकथित धर्मगुरुओं को अपनी ढाल और जनता को प्रभावित करनेवाले माध्यम के रूप में इस्तेमाल करते हैं. कहीं-न-कहीं इसके पीछे उस अपराध-बोध से मुक्त होने की आकांक्षा भी होती है, जिससे नेता ग्रसित रहते हैं. कथित धर्मगुरुओं के दरबार में राजनेताओं की उपस्थिति धर्मगुरुओं-नेताओं, दोनों के लिए फायदे का सौदा है. आम जनता की निगाह में धर्मगुरुओं का प्रभाव बढ़ता है और नेताओं को इसमें थोक वोटों की संभावना दिखाई देती है. शासकों को झुकते देख जनता धर्मगुरुओं की ताकत से खौफ खाती है और उनके महात्म्य को जाने-पहचाने वैधता भी देने लगती है.
किसी धर्म या धर्मगुरु में आस्था रखना किसी का भी वैयक्तिक मामला है. इसे चुनौती नहीं दी जानी चाहिए. लेकिन नेता-मंत्री आम नागरिक नहीं होते. वे संविधान की रक्षा की शपथ लेते हैं, जिसमें धारा-51 ए (एच) स्पष्ट कहती है कि शासन का दायित्व है कि वह ‘वैज्ञानिक सोच’ को बढ़ावा दे. पूछा जाना चाहिए इन नेताओं-मंत्रियों से कि धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर वे जन-मानस में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने वाली संविधान की बात की अवहेलना तो नहीं कर रहे हैं?
प्रधानमंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों आदि तक ने तथाकथित धर्मगुरुओं को वैधता देने, उनके कथित प्रभामंडल को बढ़ाने में औचित्य की सीमाएं लांघी हैं. इसलिए विचार हो कि नेता कहलानेवाले इस भूमिका के लिए कितने जिम्मेवार हैं. क्या औचित्य का तकाजा यह नहीं है कि किसी ‘आसाराम’ को महिमा-मंडित करनेवाले हमारे नेता अपनी भूल के लिए कम-से-कम खेद प्रकट करते? न जाने कितने तथाकथित धर्मगुरुओं को हमारे नेताओं ने ईश्वर बना दिया है. वस्तुत: हमारे समूचे राजनीतिक नेतृत्व के लिए यह एक मौका है, कुछ उचित कर दिखाने का, वैज्ञानिक सोच के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर अपनी भूल को सुधारने का.