जनतांत्रिक मूल्यों से जुड़े सवाल

सुधींद्र कुलकर्णी को निशाना बनानेवाले उनका नक्सली अतीत उधेड़ रहे हैं- इस बात से बेखबर कि सुप्रीम कोर्ट यह फैसला सुना चुका है कि इस विचारधारा से हमदर्दी रखना अपराध या देशद्रोह नहीं है. पूर्व पाक विदेश मंत्री कसूरी की पुस्तक के भारत में विमोचन को लेकर जिस अशोभनीय विवाद ने तूल पकड़ा है, उसने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 19, 2015 2:02 AM

सुधींद्र कुलकर्णी को निशाना बनानेवाले उनका नक्सली अतीत उधेड़ रहे हैं- इस बात से बेखबर कि सुप्रीम कोर्ट यह फैसला सुना चुका है कि इस विचारधारा से हमदर्दी रखना अपराध या देशद्रोह नहीं है.

पूर्व पाक विदेश मंत्री कसूरी की पुस्तक के भारत में विमोचन को लेकर जिस अशोभनीय विवाद ने तूल पकड़ा है, उसने हमें यह सोचने को विवश कर दिया है कि आज हमारे देश में कट्टरपंथी असहिष्णुता किसी एक तबके या मजहब तक सीमित नहीं रह गयी है. मुंबई में इस कार्यक्रम का आयोजन करवानेवाले सुधींद्र कुलकर्णी के मुख पर स्याही पोत शिव सैनिकों ने अपना ही नहीं, देश का मुख काला किया है. यह जगजाहिर है कि जनतांत्रिक भारत में मतभेद या असहमति का कोई स्थान नहीं है. पर यह घड़ी मर्माहत विलाप की नहीं. हमारे सामने असली चुनौती यह है कि क्या हम अब भी चुप रहेंगे या अपनी आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बुनियादी अधिकारों की रक्षा के लिए मुंह खोलने का जोखिम उठाने का हौसला दिखायेंगे?

सबसे विचित्र बात तो यह है कि जिस पुस्तक के कारण यह बवंडर उठ खड़ा हुआ, उसके 900 पन्नों में कुछ भी ऐसा नहीं, जिसे भारत विरोधी या शत्रुतापूर्ण अथवा सांप्रदायिक सद्भाव को नष्ट करनेवाला कहा जा सकता है. शीर्षक ‘नाइदर ए डव, नॉर ए हॉक’ अर्थात् न लड़ाकू बाज और न ही शांतिदूत कबूतर. लेखक ने अपनी स्थिति शुरू में ही साफ कर दी है. वह पाकिस्तानी नागरिक हैं, वहां के श्रेष्ठ वर्ग का सदस्य, जो शासक समुदाय की अंतरंग मंडली का हिस्सा रह कर शिखर नेतृत्व का प्रभावशाली सलाहकार रह चुका है.

यह आशा करना बेवकूफी है कि वह पाकिस्तानी राष्ट्रहित को भुला भारतीय हितों को तरजीह देगा. हां, जो लोग पिछले दो-तीन दशक के भारत-पाक संबंधों के उतार चढ़ाव से परिचित हैं, इस बात को जानते हैं कि कसूरी की पहचान पाकिस्तान में भारत के गिने-चुने ‘दोस्तों’ में की जाती है. वे फौजी हुक्मरानों के चाटुकार नौकरशाह कभी नहीं कहलाये और किसी ओहदे तक पहुंचने के लिए उन्हें अपने खानदानी स्वाभिमान का समझौता नहीं करना पड़ा. पाकिस्तान के सामंती समाज में फौजी तानाशाह उनको अपने साथ रख अपनी छवि सुधारने को उत्सुक रहे हैं. इसी कारण वह परवेज मुशर्रफ के कार्यकाल में लंबे अरसे तक विदेश मंत्री रह सके.

ऐसा क्या लिखा और छपाया है कसूरी ने, जो ऐसा हंगामा बरपा? जो ‘रहस्य’ उन्होंने खोला है कि आगरा शिखर वार्ता के वक्त भारत और पाकिस्तान कश्मीर विवाद निबटाने के बहुत करीब पहुंच चुके थे, उसका पर्दाफाश इसके पहले भी हो चुका है. आडवाणी अपनी किताब में इस प्रसंग का उल्लेख कर चुके हैं और हाल ही में इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व निदेशक दुल्लत अपनी तरह से इस पर बची-खुची रोशनी डाल चुके हैं. यह अटकलबाजी बहुत हो चुकी है कि इस समझौते को नाकामयाब बनाने की साजिश किसने रची और कैसे इसे अंजाम दिया गया. आडवाणी से लेकर पूर्व राजदूत विवेक काटजू तक का नाम इस सिलसिले में लिया जाता रहा है. बहरहाल, इस घटनाक्रम को लगभग 15 साल बीत चुके हैं. तब वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री थे. तब से अब तक बहुत सारा पानी नदियों में और खून जमीन पर बह चुका है. उसी कालखंड में अटके रहने से किसी को कुछ हासिल नहीं हो सकता.

एक बात और. जब भी कोई अवकाशप्राप्त नेता या राजनयिक अपने संस्मरण लिखता-प्रकाशित करता है, उसका प्रमुख उद्देश्य अपने किये को तर्कसंगत दिखलाना होता है. व्यक्ति विशेष की उपलब्धियों को अन्य इतिहासकार हो सकता है अनदेखा कर दें, या राजनीतिक पक्षधरता के कारण उनके साथ न्याय न करें, इसीलिए तहरीरी दस्तावेजी बयान बकलम खुद विरासत में छोड़ जाना बेहतर समझा जाता है. कसूरी आज पाकिस्तानी राजनीति और राजनय के हाशिये पर भी नहीं. अत: यह सोचना कि यह किताब भारत-पाक रिश्तों को प्रभावित कर सकती है, बचकाना है. कसूरी ‘ट्रैक टू’ नाम से मशहूर अमेरिका द्वारा प्रायोजित राजनयिक तमाशे में भाग लेते रहे हैं और जयपुर साहित्य महोत्सव जैसे जलसों में भी रोचक हिस्सेदारी करते रहे हैं. कुछ लोगों को इस बात से शिकायत है कि भारत की जमीन पर कसूरी दोस्ती की बात करते हैं और स्वदेश लौटते ही उनके तेवर और स्वर बदल जाते हैं. हम फिर यह दोहराना चाहेंगे कि क्या कुछ ऐसी ही हरकत हमारे अमेरिकी दोस्त ओबामा भी नहीं कर चुके हैं?

मेरा मानना है कि भारत के दोस्तों और दुश्मनों का लेबल किसी पर भी चस्पां करने से पहले कम-से-कम उसके बारे में सुलभ सार्वजनिक जानकारी से अपना परिचय बढ़ाने की जहमत उठाना जरूरी है. जिन लोगों और घटनाओं का वर्णन कसूरी ने इस किताब में किया है, वही विषयवस्तु बहुत सारी पहले प्रकाशित हो चुकी पुस्तकों की भी है. इस सूची में आप भारत के पूर्व रक्षा एवं विदेश मंत्री जसवंत सिंह के संस्मरणों और परवेज मुशर्रफ की आपबीती को भी शामिल कर सकते हैं. अगर बृहत्तर अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इन मुद्दों को समझना हो, तो अमेरिका में काम कर चुके राजदूत हक्कानी की किताब सुलभ है.

अंतरराष्ट्रीय राजनीति और सामरिक विषयों का नौसिखिया विद्यार्थी भी यह जानता है कि तमाम ऐसी पुस्तकें ‘सिर्फ सच और सच के अलावा कुछ नहीं’ नहीं होतीं. खुलासा कितना भी सनसनीखेज क्यों न हो, दूसरे-तीसरे दिन तक सुर्खियों से नदारद हो ही जाता है. लेकिन हां, विवाद से किसी भी पुस्तक की बिक्री बढ़ने की संभावना बलवती हो जाती है!

जो बात बेहद क्लेषदायक और चिंताजनक है, वह यह है कि इस पुस्तक के बहाने माहौल यह बनाया जा रहा है कि पाकिस्तान के प्रति शत्रुता ही भारतीय राजनय का स्थायी भाव रह सकता है या होना चाहिए. यदि इस तर्क को स्वीकार कर भी लें, तब भी इस नतीजे तक नहीं पहुंच सकते कि पाकिस्तान के साथ नरमी से पेश आने या संबंध सुधारने का विकल्प सुझानेवाला हर हिंदुस्तानी देशद्रोही पाकिस्तानी एजेंट है. सुधींद्र कुलकर्णी को निशाना बनानेवाले उनका नक्सली अतीत उधेड़ रहे हैं- इस बात से बेखबर कि सुप्रीम कोर्ट यह फैसला सुना चुका है कि इस विचारधारा से हमदर्दी रखना अपराध या देशद्रोह नहीं है. संकट मात्र कसूरी की किताब या ‘कलंकित’ सुधींद्र तक सीमित नहीं. यह हमारे जनतंत्र में बुनियादी अधिकारों और मूल्यों के अस्तित्व से जुड़ा ज्वलंत प्रश्न है.

पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com

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