दुनिया, पर्यावरण संकट और चीन!

।। हरिवंश।। लंदन से विश्व स्वास्थ संगठन की कैंसर एजेंसी, इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च एंड कैंसर (आइएआरसी) ने 17.10.2013 को एक रिपोर्ट जारी की है. इस रिपोर्ट का संबंध आपसे (पाठक) और हमसे (संवाददाता) समेत सबसे है. इस रिपोर्ट के अनुसार खास तौर से चीन और भारत के महानगर अत्यंत प्रदूषित हैं. इस रिपोर्ट का […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 24, 2013 4:39 AM

।। हरिवंश।।

लंदन से विश्व स्वास्थ संगठन की कैंसर एजेंसी, इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च एंड कैंसर (आइएआरसी) ने 17.10.2013 को एक रिपोर्ट जारी की है. इस रिपोर्ट का संबंध आपसे (पाठक) और हमसे (संवाददाता) समेत सबसे है. इस रिपोर्ट के अनुसार खास तौर से चीन और भारत के महानगर अत्यंत प्रदूषित हैं. इस रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि जिस हवा में हम सांस लेते हैं, इससे कैंसर होने की संभावना है.

फेफड़े का कैंसर या ब्लैडर का कैंसर.पहले प्रदूषण से हृदय रोग और श्वास से जुड़े रोग बढ़ते थे. 2010 के आंकड़ों के अनुसार दुनिया में 2,23,000 लोग फेफड़े के कैंसर से मरे. इस रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि दुनिया के कुछ हिस्सों में, खास कर जो सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश हैं, चीन और भारत, वहां की हवा और अधिक प्रदूषित है. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के आंकड़े बताते हैं कि हर साल भारत में दस लाख लोगों को कैंसर हो रहा है.

चीन का तर्क है कि वह उसी रास्ते पर चल रहा है, जिस पर पहले ब्रिटेन चला. फिर अमेरिका और जापान चले. यह रास्ता है, ‘ ग्रो फस्र्ट, क्लीन अप लैटर’ (पहले विकास करो-बढ़ो, फिर साफ -सफाई करो).

2025 तक यह बढ़ कर पांच गुना होने की आशंका है. यानी तब तक 50 लाख कैंसर रोगी सिर्फ भारत में होंगे. लंदन से जारी आइएआरसी की रिपोर्ट के अनुसार वायु प्रदूषण में तंबाकू और अल्ट्रावायलेट रेडिएशन की तरह का प्रदूषण है. पहली बार विशेषज्ञों की रिपोर्ट में वायु प्रदूषण को कैंसर का कारण बताया गया है. प्रदूषण के मुख्य स्नेत हैं, ट्रांसपोर्टेशन (यातायात), पावर प्लांट, औद्योगिक व कृषि उत्सर्जन (इमिशन). डॉक्टर कहते हैं कि हमलोग, लोगों को तंबाकू खाने या सिगरेट पीने से मना कर सकते हैं, पर हवा न लेने यानी सांस न लेने कैसे कह सकते हैं? डीजल का इस्तेमाल अत्यंत खतरनाक है. हार्वर्ड विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की प्रोफेसर फ्रेंकेसा की अपेक्षा है कि लोग भी इसमें पहल कर सकते हैं कि वे बड़ी गाड़ी न चलायें, पर यह राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्षम अधिकारियों के फैसले पर निर्भर होगा.

आज दुनिया में ऐसा माना जा रहा है कि चीन और भारत, दुनिया को सबसे तेज प्रदूषित करनेवाले मुल्क हैं. भारत के मुकाबले चीन अधिक प्रदूषित है. क्योंकि उसके यहां औद्योगिकीकरण की रफ्तार भारत से बहुत अधिक है. इस अर्थ में आज दुनिया एक गांव है. आप या हम कुछ करें या न करें, पर प्रदूषण की रफ्तार यही रही, तो आपका और हमारा जीवन खतरे में है. यह है, आज की दुनिया. दुनिया उस मुकाम पर पहुंच गयी है, जहां उसे तय करना है कि उसे तेज आर्थिक विकास चाहिए या विकास का कोई दूसरा वैकल्पिक मॉडल हो? पहला यानी आज का विकास मॉडल है, तेजी से औद्योगिकीकरण, खेती में खूब उर्वरक का इस्तेमाल, अधिकाधिक उत्पादन, चरम मुनाफा, भोग, इंद्रिय सुख, साथ में प्रदूषित पर्यावरण की कीमत पर प्राकृतिक प्रकोप. दूसरा मॉडल, जो दुनिया में आज है ही नहीं, वह है, गांधी का रास्ता. प्रकृति से जरूरत भर लें. भोग-विलास के चरम आनंद में न डूबें. संपदा या पूंजी सृजन ही जीवन, समाज या देश का एकमात्र लक्ष्य न हो. मुनाफा ही भगवान न हो. जरूरत भर चीजें हरेक को मिलें. आज की तरह आर्थिक विषमता न हो. समतापूर्ण समाज हो. यह दूसरा विकल्प दुनिया के सामने है. दूसरे विकल्प में पेड़, आसमान, जंगल, पहाड़, नदी, धरती के नीचे के प्राकृतिक संसाधनों को बिना निकाले, उनके साथ सहअस्तित्व-जीना है. बिना प्रदूषित किये. बिना लोभ-लालच का मानस लिये. पहले मॉडल में इन सबको नष्ट कर जीना है. दूसरे मॉडल में सबके साथ जीना है. थोड़े अभाव में, थोड़े कष्ट में.

फैलिन तूफान का आतंक भारत के लोग भूले नहीं हैं. वैज्ञानिकों ने कहा है कि धरती के लगातार गर्म होने के कारण, पर्यावरण संकट के कारण ही समुद्र में ऐसे तूफान जनमते हैं. भारत के कोने-कोने में बेमौसम वर्षा, असमय आंधी और उत्तराखंड में हुए हादसे के प्रकोप को देख कर मौसम वैज्ञानिक यह कयास लगाने लगे हैं कि मौसम में कुछ नया घटित हो रहा है. चीजें बदल रही हैं. इसका असर सिर्फ भारत में ही नहीं है. हाल ही में, चीन के तटीय इलाकों के कई बड़े शहर समुद्र में उठे तूफान में लगभग जलमग्न हो गये. चीन के उन तटीय शहरी इलाकों के दृश्य टीवी पर भयावह दिख रहे थे. बहुमंजिली इमारतों की पहली मंजिल तक पानी. पानी में डूबी गाड़ियां और सामान्य जीवन के लिए तरसते लोग. अमेरिका में भी आ रहे तूफानों के भयावह दृश्य प्राय: देखते ही हैं. क्या इस पर्यावरण संकट के मूल में मानवीय भूल है? मौसम वैज्ञानिक एक हद तक कहते हैं, हां! दुनिया की मशहूर पत्रिका द इकनॉमिस्ट का एक अंक हाल ही में आया था (10.08.13 से 16.08.13). इस पत्रिका में चीन पर आमुख कथा थी. कवर पर मोटे हर्फो में लिखा था, द वल्र्डस वस्र्ट पाल्यूटर (आशय है- दुनिया का सबसे खराब प्रदूषण फै लानेवाला मुल्क). कवर पेज पर धरती की तसवीर थी, जो चीन के प्रतीक चिह्न् ड्रैगन के पंजे या चंगुल में थी. नीचे लिखा था, कैन चाइना क्लीन अप फास्ट इनफ (क्या चीन बहुत तेजी से अपनी सफाई कर सकेगा). आज चीन को खुद दुनिया चमत्कार मान रही है. पहले मॉडल पर चल कर आर्थिक विकास करने के कारण. पर खुद चीन कैसे पर्यावरण संकट से जूझ रहा है, यह जानना दिलचस्प होगा?

1819 में महान कवि पीवी शेली ने लिखा था कि नरक बहुत हद तक लंदन की तरह है. अत्यंत भीड़भाड़ वाला और धुएं से अच्छादित शहर. विशेषज्ञ कहते हैं कि आज चीन के अनेक शहरों को इस परिभाषा से समझा या पहचाना जा सकता है. 19वीं सदी के ब्रिटेन की तरह चीन भी तेजी से औद्योगिकीकरण के बल विकास के शीर्ष पर पहुंचना चाहता है. पर, चीन ने साथ ही बहुत बड़ा बजट बना कर बड़ी तेजी से सफाई अभियान भी शुरू किया है. क्योंकि चीन इस खतरे को भांप गया है. संयोग है कि चीन बहुत बड़ा देश है. बड़ी तेजी से बढ़ रहा है और इसके पर्यावरण संकट से दुनिया जुड़ी है. जनवरी-2013 में बीजिंग की हवा में टॉक्सिटी (विषैले तत्व), विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा तय मापदंड से 40 गुना अधिक थी. चीन की एक-दहाई खेती योग्य भूमि, रासायनिक तत्वों, भारी धातुओं से प्रभावित है. द इकनॉमिस्ट के अनुसार चीन की कुल शहरी जलापूर्ति के आधे से अधिक भाग का पानी धोने के काबिल नहीं है. पीने की बात छोड़ दें. चीन के उत्तरी इलाके में वायू प्रदूषण इतना गहरा व मारक है कि अनुमान के अनुसार एक सामान्य व्यक्ति की औसत उम्र पांच से साढ़े पांच वर्ष घट जाती है. इस चौतरफा प्रदूषण के खिलाफ चीन में आक्रोश भड़का. चीन के मध्यवर्ग ने इसे मारक माना. आवाज उठायी. चीनी सरकार को भय लगा कि पर्यावरण विरोधी, कहीं बड़े राजनीतिक प्रतिरोध की ओर न बढ़ें. इसलिए चीन ने इस समस्या से निबटने के लिए दो तात्कालिक कदम उठाये. इससे जुड़े विरोध को कुचलना, साथ में प्रदूषण को कम करने की तेज कोशिश. पर्यावरण के लिए आंदोलन करनेवाले जेल भेजे गये. चीन इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाने जा रहा है, ताकि सख्ती से विरोध से निबटा जा सके. पर साथ ही प्रदूषण-गंदगी की सफाई के लिए चीन ने बड़ा भारी बजट बनाया है. चीन ने कहा है कि अगले पांच वर्षो में हवा की गुणवत्ता सुधारने के लिए 275 अरब डॉलर वह खर्च करेगा. यह राशि हांगकांग के जीडीपी के बराबर और रक्षा बजट की दोगुनी है. चीन से होनेवाले प्रदूषण दुनिया पर असर डाल रहे हैं. दुनिया के संसाधनों पर भी. आज चीन अपने तेज विकास की भूख में दुनिया का 40-45 फीसदी कोयला, स्टील, अल्यूमिनियम, तांबा, निकल और जिंक (जस्ता) अकेले खपा रहा है. चीन की चिमनियों से कार्बन डाइआक्साइड गैस पहले दो अरब टन प्रतिवर्ष निकलती थी, अब वह नौ अरब टन है. पूरी दुनिया से जिस मात्र में यह गैस निकलती है, उसकी तीस फीसदी अकेले चीन से निकलती है. अमेरिका से दोगुनी कार्बन डाइआक्साइड चीन उत्पादित करता है. अब चीन इस मामले में पश्चिम से पीछे नहीं है. आज एक औसत चीनी, एक औसत यूरोपियन के बराबर ही कार्बन डाइआक्साइड गैस उत्सजिर्त करता है.

पर, चीन सरकार अब सजग है. वह ऊर्जा उपभोग में कटौती कर रही है. इसके विकल्प के रूप में बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा (सोलर एनर्जी और विंड पावर) के भीमकाय-महाकाय उद्योग खड़े कर रही है. पर, चीन सरकार के जो बड़े उत्पादक कल-कारखाने हैं, उनका नियंत्रण राज्य स्तर पर राज्य पार्टी इकाई का है. उनसे समन्वय कर पर्यावरण प्रदूषण पर नियंत्रण लगाना कठिन लग रहा है. क्योंकि स्थानीय स्तर पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की प्राथमिकता है, अपने आर्थिक लक्ष्यों को पाना. अधिक से अधिक नौकरियों का सृजन, उत्पादन बढ़ाना वगैरह. अगर अर्थव्यवस्था में विकास दर की रफ्तार कम होती है, तो स्थानीय स्तर पर बेचैनी बढ़ जाती है. अब खतरा है कि चीन अगर अपना उत्सजर्न नहीं घटाता, तो दुनिया के अन्य देशों को अपना कार्बन डाइआक्साइड गैस का उत्सजर्न घटाना होगा. अन्यथा दुनिया के मौसम में बदलाव, अनावृष्टि, बाढ़, प्राकृतिक आपदा वगैरह के खतरे बढ़ेंगे. खुद चीन समुद्र में उफान, उठान से परेशान है. चीन के नेताओं को पता है कि अगर कार्बन डाइआक्साइड गैस की मात्र नहीं घटती, तो खुद चीन भी गहरी मुसीबत में है. क्योंकि चीन के अनेक बड़े शहर समुद्र तटों के नजदीक बसे हैं. खुद अपने शहरों को बचाने के लिए चीन को संभलना होगा. इसलिए अमेरिका व चीन, दोनों ने बातचीत कर ग्रीन हाउस गैस का उत्सजर्न घटाने का निर्णय लिया है. दरअसल, पर्यावरण संकट आज दुनिया का सबसे गंभीर सवाल है. 16.10.2013 को जापान में तूफान आया, जिसमें 17 लोग मारे गये. पचास का पता नहीं है. यह भयावह तूफान था. बीस हजार लोगों को अपना घर खाली करना पड़ा. क्योंकि बाढ़ की आशंका थी. सैकड़ों जापानी उड़ानें रद्द की गयीं. यह तूफान तोक्यो से 120 किलोमीटर दक्षिण में आया था. नदियों ने अपने कगार तोड़ दिये. पानी आसपास दूर तक फैला. कुछ वर्ष पूर्व दुनिया में सुनामी का प्रकोप सबने देखा. फिलीपींस में 10.10.2013 (जिस दिन जापान में घटना हुई) को भूकंप आया, जिसमें 144 लोग लापता हैं. तीस लाख लोग प्रभावित हैं. इंडोनेशिया में भी, हाल ही में तूफान आया था, जिसमें भारी क्षति हुई. इस तरह पर्यावरण का सवाल आज दुनिया के अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न बन गया है.

अमेरिका में भी 1969 में एक घटना हुई थी. ओहायो के सीयाहोगा नदी में प्रदूषण के कारण मछलियां खत्म हो गयीं. नदी में आग लग गयी. फिर अगले साल तक अमेरिका में पर्यावरण प्रोटेक्शन एजेंसी गठित हो गयी. 1970 के दशक में जापान ने पर्यावरण से जुड़े अत्यंत कठोर कानून बनाये, जब एक प्लास्टिक के कारखाने से जहरीला मरकरी (पारा) निकला और मिनामाता की खाड़ी में हजारों लोगों का जीवन संकट में पड़ गया. जनवरी-2013 में बीजिंग में गहरा कुहासा रहा. कई सप्ताह तक. पूरी आबोहवा वैसी थी, जैसे एयरपोर्ट पर स्मोकिंग जोन (ध्रूमपान क्षेत्र) में होती है. गर्म हवा की परत चीन की राजधानी के ऊपर छा गयी थी. बीजिंग के पास कोयले से चलनेवाली दो सौ बिजली उत्पादन इकाइयां हैं. हवा में इनके उत्सजर्न सघन बन कर छा जाते हैं. विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा तय मापदंड से 40 गुना अधिक. कहते हैं, इस हालत में आप न सूंघ सकते हैं, न स्वाद ले सकते हैं और न निगल सकते हैं. घुटन का एहसास होता है. चीन में इस कारण लोक आक्रोश बढ़ा. कहा जाने लगा श्रेष्ठ प्रबंधन स्कूलों के हजारों छात्र और प्राध्यापक व संपन्न बिजनेस घराने व बड़े निवेशक इस प्रदूषण के कारण बीजिंग या चीन छोड़ने लगे. बीजिंग, चीन के प्रदूषित अनेक शहरों में से एक है. 2008 ओलिंपिक के पहले अपने कायाकल्प के प्रयास में बीजिंग ने अनेक प्रदूषण फैलानेवाली इकाइयों को इधर-उधर हटाया था.

जनवरी-2013 की इस घटना के बाद, चीन में ग्रीन पॉलिसी (पर्यावरण संरक्षण की नीति) बनाने पर जोरदार बहस और कोशिश शुरू हुई. इस साल जून में वायू प्रदूषण रोकने के लिए चीनी सरकार ने अनेक सुधार किये. सख्त कानून बनाया. स्थानीय अधिकारियों को स्थानीय वायु शुद्धता के लिए जिम्मेदार बताया. चीन ने तय किया कि सरकार और सभी कंपनियां मिल कर अगले पांच वर्षो में वायू प्रदूषण मुक्ति के प्रयास में 275 अरब डॉलर खर्च करेंगे. दुनिया के लोग मानते हैं कि चीन के लिए अमेरिका और जापान की तरह यह निर्णायक कदम है. पर्यावरण संकट से संबंधित जुलाई में अमेरिका की नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस ने एक रिपोर्ट जारी की. उसके अनुसार चीन के उत्तर में वायू प्रदूषण से औसत आयु पांच से साढ़े पांच वर्ष घट रही है. नदियां अत्यंत गंदी और प्रदूषित हो रही हैं. धरती में भी गहरा प्रदूषण है. कुहासा छाया रहता है. चीन का ग्रीन हाउस गैस उत्सजर्न, 1990 में पूरी दुनिया का दस फीसदी था. अब तीस फीसदी है. 2000 के बाद पूरी दुनिया में चीन अकेला देश है, जिसके कारण कार्बन डाइआक्सासइड उत्सर्जन दो-तिहाई से अधिक हुआ. सिर्फ चीन की वजह से. इसको पलट पाना बहुत कठिन है. आज अमेरिका और यूरोप मिल कर हर साल इस गैस उत्सर्जन में छह करोड़ टन की कटौती कर रहे हैं. उधर चीन हर साल 500 टन उत्सर्जन बढ़ा रहा है. इससे पूरी दुनिया का वायुमंडल खतरे में है. पर चीनी इसे नकारते हैं. चीन कहता है कि ग्रीन हाउस गैस बनाने का जिम्मेदार वह नहीं, बल्कि पश्चिमी देश हैं. चीन का तर्क है कि वह उसी रास्ते पर चल रहा है, जिस पर पहले ब्रिटेन चला. फिर अमेरिका और जापान चले. यह रास्ता है, ‘ ग्रो फस्र्ट, क्लीन अप लैटर’ (पहले विकास करो-बढ़ो, फिर सफाई करो). चीन बहुत तेजी से आगे बढ़ा. अब वह सफाई में लग रहा है. ऐसा उसका दावा है कि इसी क्रम में उसने सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा के प्रयोग के लिए बड़ी-बड़ी परियोजनाएं बनायी हैं. चीन का कहना है कि एक दिन ऐसा होगा, जब वह जीरो कार्बन डाइआक्साइड एनर्जी की स्थिति में होगा. यह सही है कि 1960-70 के दशक में जिस तरह जापान वगैरह प्रदूषित थे, उसी स्थिति में आज चीन है. चीन के जंगली जानवर और पर्यावरण भी खतरे में हैं.

चीन में गहरा संकट पानी पर है. चीन में जिस जगह प्रति व्यक्ति एक हजार क्यूबिक मीटर पानी, प्रति वर्ष उपलब्ध है, उसे पानी संकट का क्षेत्र कहते हैं. पर चीन में यह आमतौर से उपलब्ध 450 क्यूबिक मीटर है. अपने ही तय पैमान पर चीन में जल संकट है. चीन का राष्ट्रीय औसत इससे खराब स्थिति में है. पानी को लेकर क्षेत्रीय विषमता अलग है. 4/5 पानी दक्षिण चीन में है. यांगत्सी नदी प्रक्षेत्र में. पर चीन के आधे से अधिक लोग और दो-तिहाई खेती के बड़े फार्म उत्तर में हैं. पीली नदी बेसिन में. बीजिंग में प्रति व्यक्ति, प्रतिवर्ष पानी सौ क्यूबिक मीटर ही उपलब्ध है. दो दशकों में जलस्तर काफी नीचे चला गया. चीन के पूर्व प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने पानी संकट पर कहा था, इससे चीन के अस्तित्व पर खतरा है (इट थ्रेटेंस द वेरी सरवाइवल ऑफ द चायनिज नेशन). पर प्रदूषण के कारण अब स्थिति जटिल हो गयी है. सरकार की एक समिति है, द येलो रिवर कंजरवेंसी कमीशन (पीली नदी संरक्षण आयोग). इस आयोग ने चीन की मूल नदी (मदर रिवर) का सर्वे किया और पाया कि इसका तिहाई पानी इस कदर प्रदूषित है कि यह खेती के योग्य भी नहीं. आवास मंत्रलय के चीफ इंजीनियर पानी शुद्धता के बारे में पहले ही कह चुके है कि शहरी क्षेत्रों में आधे से अधिक जलस्नेत ही पीने योग्य हैं. इस तरह चीन में पानी, जमीन और हवा- तीनों प्रदूषण से प्रभावित हैं. पर चीन के वैज्ञानिक कहते हैं कि हम अमेरिका, जापान और ब्रिटेन के ही रास्ते पर हैं. इसे तुरंत रोक नहीं पा रहे. चीन की अर्थव्यवस्था बड़ी है और प्राकृतिक संसाधनों की भूखी भी (रिसोर्स हंगरी). दुनिया के उत्पादन में इसका 16 फीसदी योगदान है, लेकिन दुनिया के कोयला, स्टील, अल्यूमिनियम, कॉपर, निकेल और जिंक का उपयोग 40-50 फीसदी के बीच अकेले चीन कर रहा है. धरती के आधे से अधिक ऊष्णकटिबंधीय बोटा या कुंदा (खास तरह की लकड़ी) भी चीन आयात करता है.

आज पूरी दुनिया में जो कोयला आपूर्ति है, उसका आधे से अधिक अकेले चीन उपयोग करता है. 2006 में ऊर्जा उत्पादन से चीन में कार्बन डाइआक्साइड गैस का उत्सर्जन अमेरिका से अधिक होने लगा. 2014-15 में अनुमान है कि यह अमेरिका से दोगुनी गैस उत्सर्जित करेगा. 1990-2050 के बीच इसका कुल उत्सर्जन पांच सौ अरब टन होगा. मोटा अनुमान यह है कि औद्योगिक क्रांति के बाद 1970 तक पूरी दुनिया में जितनी कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन हुआ, उतनी अकेले चीन में हो जायेगी. इससे पर्यावरण सबसे अधिक प्रभावित होता है. पूरी दुनिया के देशों का यह गैस उत्सर्जन जोड़ दें, तो वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर कह-बता रहे हैं कि यह खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है. ऐसा नहीं है कि इसका नुकसान चीन को नहीं उठाना पड़ेगा. चीन भी इससे तबाह होगा. चीन में भी बंजर धरती बढ़ रही है. खेती योग्य जमीन सूख रही है. कृषि उपज प्रति एकड़ घट रही है. चीन के आठ करोड़ लोग समुद्र के किनारे रहते हैं. अगर समुद्र में उफान या बड़े तूफान आते हैं, तो इनका जीवन संकट में होगा. अगर चीन अपना हैवी मैन्युफैक्चरिंग उद्योग और खनन उद्योग तटीय इलाकों से गरीब पश्चिम इलाके सिनजियान या तिब्बत की ओर ले जाता है, तो वहां अलग पर्यावरण ध्वंस होगा. क्योंकि ये क्षेत्र वैसे ही नाजुक पर्यावरण स्थिति में हैं. पर्यावरण से जुड़ी ये कुछ चीजें तात्कालिक रूप से मारक या प्रभावी नहीं हैं, पर इनके दीर्घकालिक असर से चीन के सामने गंभीर चुनौतियां खड़ी हैं. चीन के विश्व मशहूर पर्यावरण आंदोलनकारी मा जून कहते हैं कि हर चीनी आज जानता है कि पर्यावरण और उसके स्वास्थ के बीच क्या रिश्ता है? इसलिए चीनी सरकार कठोर कानून बना रही है. लोग अब यह भी कहने लगे हैं कि अधिक संपन्नता और धन पाकर क्या होगा, जब पर्यावरण ही नष्ट हो जायेगा? पर एक वर्ग ऐसा भी है, जो यह कहता है कि साफ पानी और सुंदर पहाड़ों के बीच अगर गरीबी और पिछड़ापन है, तो यह कैसे जायज है? दरअसल, यह द्वंद्व अकेले चीन का नहीं, पूरी दुनिया का है. लोग मानते हैं कि जिस दिन चीन की सरकार सख्त कदम उठायेगी, चीन में वह आसानी से लागू कर देगी. जबकि अन्य देशों में सख्त कानून लागू करना इतना आसान नहीं.

चीन के नये राष्ट्रपति सी जिनपिंग इस बारे में काफी सजग हैं, और वह कठोर कदम उठाना चाहते हैं. चीन आज ऐसे सवालों को लेकर बेचैन भी है. शिंहुआ न्यूज एजेंसी ने फरवरी-2012 में एक ओपिनियन पोल (जनमत सर्वेक्षण) कराया था, जिसमें पाया कि चीनी, जिन तीन सबसे गंभीर समस्याओं से परेशान हैं, उनमें घरों की बढ़ती कीमतें, समाज में बढ़ती विषमता और खाद्यान्न सुरक्षा है. इस वर्ष मार्च में चाइना यूथ डेली ने भी एक सर्वे किया. उसमें भी लोगों ने भ्रष्टाचार, आय की विषमता के बाद खाद्यान्न सुरक्षा (प्रदूषित न होना महत्वपूर्ण) पाया. इस तरह से खाने-पीने की चीजों की शुद्धता को लेकर चीनी समाज अब काफी सजग और परेशान है. वह इसे महत्वपूर्ण मानता है. पर चीन सजगता से यह स्थिति भी बदलने की कोशिश कर रहा है. वह परंपरागत ऊर्जा उत्पादन पद्धति से हट कर हवा और सौर ऊर्जा उत्पादन की ओर बढ़ रहा है. चीन इसमें निवेश दोगुना कर रहा है. दुनिया के दूसरे सभी देशों से कई गुना अधिक. 2012 में यह 67 अरब डॉलर था. इस दिशा में 2015 तक चीन की महत्वाकांक्षी योजनाएं है. आज अमेरिका हवा से जितनी ऊर्जा उत्पादित करता है, उस हालत में चीन पहुंच गया है. अनेक दूसरे कदम चीन ने उठाये हैं, ताकि पर्यावरण प्रदूषण को वह रोक सके. आज अगर चीन पश्चिमी देशों के रहन-सहन के स्तर पर पहुंचता है, तो उसके यहां कारों की संख्या ही दस गुना बढ़ जायेगी. चीन की अर्थव्यवस्था में कुल जीडीपी में 43 फीसदी तक सर्विस सेक्टर (सेवा क्षेत्र) का योगदान होगा. आज चीन के नेता जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों को अच्छी तरह समझते हैं. वे प्राथमिकता के आधार पर इसे हल करना चाहते हैं.

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