बिहार चुनाव में फिल्मी सितारे
विनोद अनुपम फिल्म समीक्षक अभिनेता अजय देवगन आये और चले गये. बिहार के अखबारों में उन्हें रंगीन तसवीर तक कायदे से मयस्सर नहीं हो सकी. अगर वे खबरों में आये, तो इसलिए कि कहीं भगदड़ मच गयी, तो कहीं मारपीट हो गयी. चुनाव प्रचार में अजय देवगन की क्या और कितनी भूमिका रही, उसे रेखांकित […]
विनोद अनुपम
फिल्म समीक्षक
अभिनेता अजय देवगन आये और चले गये. बिहार के अखबारों में उन्हें रंगीन तसवीर तक कायदे से मयस्सर नहीं हो सकी. अगर वे खबरों में आये, तो इसलिए कि कहीं भगदड़ मच गयी, तो कहीं मारपीट हो गयी. चुनाव प्रचार में अजय देवगन की क्या और कितनी भूमिका रही, उसे रेखांकित करने की किसी ने जरूरत नहीं समझी. पता नहीं किनके बुलावे पर उनका चुनाव प्रचार में बिहार आगमन हुआ था, क्योंकि भाजपा के शीर्ष नेताओं में भी कोई उन्हें तवज्जो देते नहीं दिखा.
यही बिहार है. बिहार के लोकतंत्र की यही खासियत है, जहां सिर्फ और सिर्फ हार्डकोर राजनीति चलती है. होंगे सितारे आप बड़े या छोटे पर्दे के. यहां के सबसे बड़े सितारे पॉलिटिशियन खुद हैं. यहां हेमा मालिनी को भी सुर्खियां नहीं मिल पाती हैं. यह बिहार का ही कमाल है कि राजनेताओं के मुंह से तो मिमिक्री सुन सकते हैं, लेकिन अभिनेताओं की मिमिक्री को वे रत्ती भर भी तरजीह नहीं देते.
आश्चर्य नहीं कि चुनाव के पहले सुर्खियां बटोरनेवाले स्टार प्रचारक शत्रुघ्न सिन्हा को आज कोई ढूंढ नहीं रहा. अपने संसदीय क्षेत्र तक में उन्हें भीड़ जुटाने लायक भी नहीं समझा जा रहा. स्मृति ईरानी ने काफी श्रम और समर्पण से अपनी टीवी एक्ट्रेस की छवि से मुक्ति पाकर पॉलिटिशियन की स्वीकार्यता बना ली है, इसीलिए इस क्रम में उन्हें नहीं रखा जा सकता.
कहने को समय-समय पर बिहार में शेखर सुमन और कुणाल सिंह ने भी राजनीति में पहचान बनाने की कोशिश की, लेकिन जनता की उपेक्षा से वापस लौटने में देर नहीं लगायी. प्रकाश झा लगातार संसद पहुंचने के लिए चुनाव में हिस्सा लेते रहे हैं. नीतीश कुमार के साथ विशेष राज्य की मांग करते हुए धरने पर भी बैठे, लेकिन विधानसभा के इस चुनावी यज्ञ में न तो वे अपनी कोई भूमिका समझ रहे हैं, न ही कोई पार्टी. बॉलीवुड में पहचान बनाने के लिए संघर्षरत नेहा शर्मा भागलपुर में अवश्य अपने पिता के चुनाव प्रचार में सक्रिय दिखी, लेकिन बेटी के रूप में अधिक अभिनेत्री के रूप में कम.
दक्षिण भारत की बात थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दें, जहां राजनीति में फिल्मी सितारों की सशक्त दखल होती है.हिंदी प्रदेशों- हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब जैसे प्रांतों में भी चुनावों में सितारों की मांग बढ़ती जा रही है. कहीं न कहीं यह राजनीतिज्ञों का अपने आप से और अपनी राजनीति पर अविश्वास का यह प्रतीक लगता है. वे अपने और जनता के बीच के गैप को सितारों की चमक से पाटना चाहते हैं.
ऐसे में बिहार की राजनीतिक प्रौढ़ता एक बार फिर चकित करती है. पॉलिटिशियन जैसे भी हों, जब काम उन्हें करना है, तो बात भी उन्हीं की सुननी है. तुम अच्छे अभिनेता हो, तो परदे पर तुम्हारे डॉयलॉग सुन लेंगे. चुनाव के बाद फिल्म के प्रमोशन के लिए आओगे, तो तुम्हें देखने के लिए भीड़ जुटा देंगे, लेकिन राजनीति पर तुम्हारी बात नहीं सुनेंगे. हम अपनी राजनीतिक समझ को तुम्हारी चमक से चौंधियाने ही नहीं देंगे.