दशहरा अपने साथ कथा लेकर आता है और दशहरा की कथा के भीतर ही इस देश की कथा भी तैयार हुई है. कुछ तो होगा ही आनंदमठ के रचयिता बंकिमचंद्र के मन में, जो अपने प्रसिद्ध गीत वंदे मातरम् में भारतमाता का विग्रह खड़ा किया तो लिखा- ‘त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी’. क्या बंकिम का भारतमाता को दुर्गारूप में याद करना आत्मशक्ति का ही आवाहन नहीं था!
संकल्प के हाथों जड़ीभूत कलश नवरात्रि के नौ दिन रंचमात्र नहीं डोलता. कलश के आगे का दीप पल भर को नहीं बुझता. क्या यह कोटि-कोटि जनता-जनार्दन का सालाना कर्मकांड भर है? नहीं, कलश और दीप का प्रतीक बहुत कुछ कहता है. भारत की कथा-परंपरा में कलश देह का प्रतीक है. कबीर कहते हैं- ‘फूटा कुंभ जल जल ही समाना’. दीप प्रतीक है, सदा ऊपर को उठती चेतना का. देह के भीतर चेतना उर्घ्वगामी हो, सबको आत्मवत पहचाने, कलश-स्थापना का विधान और नौरात्रि का संयम इस एक बात का संकेत है.
बंकिम से यह अर्थ छुपा न रहा होगा. अंगरेजों की दासता की बेड़ियों में जकड़ी भारतमाता की संतानों के लिए बाहर के रण को जीतने के लिए सबसे पहले जरूरी है आत्मशक्ति के स्वरूप का अनुसंधान और साक्षात्कार- बंकिम के वंदे मातरम् गीत में आया पद ‘त्वं ही दुर्गा दशप्रहरणधारिणी’ इसी का संकेतक है.
ठीक है कि इस गीत के साथ एक रक्तरंजित इतिहास जुड़ा है, लेकिन गीत राजनीति के लिए नहीं होते. वे हृदय के धर्म से उपजते हैं और हृदय में ही उनका अर्थ खुलता है. भारतमाता को दुर्गा के रूप में याद करते समय बंकिम के हृदय में क्या रहा होगा इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं. बंकिमचंद्र अपने जानते गीत ही रच रहे थे और इस गीत का मर्म खुला महाप्राण निराला की कविता में. ‘राम की शक्तिपूजा’ में निराला के ‘राम’ निराश हैं. राम को लगता है- ‘अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति’.
विधि की इस विडंबना को देख कर राम की आंखें भर आती हैं- ‘कहते छल-छल हो गये नयन, कुछ बूंद पुन: ढलके दृगजल’. घनघोर नैराश्य के सागर में डूबते-उतराते राम के कानों में गूंजा जाम्बवान का वाक्य कि ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन, छोड़ दो समर, जबतक ना सिद्धि हो रघुनंदन’.
बंकिम की दुर्गारूप भारतमाता असल में शक्ति की ही मौलिक कल्पना का नाम है.
भारत की आजादी की लड़ाई का बीज शब्द था स्वराज और आजादी की लड़ाई को जिस एक व्यक्ति ने अपनी नैतिक आभा से थाम रखा था, महात्मा के विशेषण से याद किये जानेवाले उसी गांधी ने सिखाया कि स्वराज की यात्रा ‘स्व’ के खोज से आरंभ होती है, अपने भीतर को साधे बगैर बाहर का स्वराज नहीं आ सकता. आत्म-नियंत्रण ही कुंजी है अपने भीतर को साधने की. बंकिम की दुर्गा, निराला का शक्तिपूजन और महात्मा का स्वराज, तीनों एक ही यात्रा के निरंतर बढ़ते चरण हैं.
इन तीनों के सामने एक साझा प्रश्न था कि शक्ति अन्यायी के हाथ में हो तो क्या किया जाये, कैसे निपटा जाये विध्वंस पर उतारू शक्ति से? एक रास्ता तो बड़ा आसान है, ईंट का जवाब पत्थर से देने का रास्ता- परंपरा बताती आयी थी कि शठ के साथ शठ का ही आचरण करना चाहिए. लेकिन नहीं, बंकिम का रास्ता, निराला की चिंता, गांधी के सत्य की खोज को यह परंपराप्रदत्त रास्ता मंजूर नहीं था.
गांधी इस खतरे को समझते थे कि अन्यायी से लड़ने के लिए अन्याय का ही रास्ता अपनाया, तो अन्याय में इजाफा होगा, एक और अन्यायी खड़ा होगा. उन्होंने दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लेने पर आमादा अंगरेजी सभ्यता की लोभ-वृत्ति के प्रति आगाह करते हुए देशवासियों को चेताया- ‘अंगरेजी शासन से छुटकारा पाने के लिए अधीर हुए जा रहे हम लोगों के लिए ठहर कर सोचने का वक्त है. क्या हम एक बुराई की जगह दूसरी ज्यादा बड़ी बुराई (यानी आधुनिक विज्ञान और भौतिक प्रगति का विचार) की राह हमवार नहीं करने जा रहे?
विश्व के महानतम धर्मों की क्रीड़ास्थली भारत यदि आधुनिक सभ्यता की राह पर चलते हुए अपनी पवित्र धरती पर बंदूकों के कारखाने खड़े करता है, घृणास्पद औद्योगीकरण की वही राह अपनाता है, जिसने यूरोप के लोगों को गुलामी की दशा में डाल दिया है और मानवता की साझी पूंजी बन सकने लायक उनके गुणों का गला घोंट रखा है, तो फिर भारत चाहे और जो कुछ भी बन जाये, भारतीय होने के अर्थ में एक राष्ट्र नहीं बन सकता.’
आज देश आजाद है, लेकिन गांधी का स्वराज, निराला का शक्ति-पूजन और बंकिम की दुर्गा रूप भारतमाता का अपनी संतानों से सवाल शेष है. आइये, ‘रूपं देहि, जयं देहि, यशो देहि द्विषो जहि- विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु’ के अपने दुर्गा-पाठ की विजयादशमी एक बार फिर से हम शक्ति की मौलिक कल्पना से करें!