करें मन के रावण का विसर्जन

पंकज दुबे उपन्यासकार व फिल्मकार मौजूदा दौर छवियों का दौर है. छवियां हमारे सोच को, हमारी शख्सीयत को काफी हद तक प्रभावित करती हैं. हमारा आज हमारी पुरानी छवियों का प्रतिबिंब है. आज का दौर छवियों से अपने सोच को सच में बदलने का दौर है. दशहरा से जुड़ी जो तस्वीर मेरे बचपन की स्मृतियों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 21, 2015 4:46 AM
पंकज दुबे
उपन्यासकार व फिल्मकार
मौजूदा दौर छवियों का दौर है. छवियां हमारे सोच को, हमारी शख्सीयत को काफी हद तक प्रभावित करती हैं. हमारा आज हमारी पुरानी छवियों का प्रतिबिंब है. आज का दौर छवियों से अपने सोच को सच में बदलने का दौर है. दशहरा से जुड़ी जो तस्वीर मेरे बचपन की स्मृतियों में कैद है, उसमें मुझे मां दुर्गा के शस्त्र से घायल असुर दिखता है.
बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक. कई फिल्मों के खलनायकाें को भी ठीक उसी तरह क्लाइमैक्स में मरते देखा. जब तक किशोर हुआ, तब तक अपनी सोच-समझ का मामला ठीक-ठाक चलता रहा.
मेरे अंदर पहली वैचारिक छटपटाहट तब हुई, जब मैंने हिंदी फिल्मों से खलनायकों को लुप्त होते पाया. खलनायक गायब होने लगे या यूं समझें कि उनका नायक के शरीर में, नायक की आत्मा के साथ एकीकरण होने लगा. यह वह दौर था, जब शाहरुख खान अपनी बाजीगरी से दर्शकों को डरा रहे थे.
बाजीगर और डर जैसी फिल्मों ने मेरे किशोर मन में उस असुर के दुर्गा में प्रवेश कर जाने के विचार को जगह दी और इस विचार के साथ मेरी वैचारिक छटपटाहट बढ़ती गयी. समाज और सिनेमा, दोनों ने एक-दूसरे को हमेशा से प्रभावित किया है. तो क्या यह समाज में आ रहे बदलाव का सूचक था?
बाद में मेरे परिवेश का परिवर्तन कुछ इतना अधिक हो गया कि दबंग जैसी ‘खतरनाक’ फिल्म भी बन गयी. मैं डर गया.
लगा जैसे नायक का नायकत्व मर चुका है! मां दुर्गा एक लंबी छुट्टी पर जा चुकी हैं! सिर्फ असुर बचा है! दबंग से पहले की हिंदी फिल्मों के नायक चाहे कितने भी भ्रष्ट, अपराधी, आतंकी दिखाये जाते थे, फिल्म खत्म होने तक वे या तो सुधर जाते थे, या फिर पश्चाताप करते हुए मर जाते थे. दबंग सामाजिक रूप से ऐसी पहली और सबसे खतरनाक फिल्म थी, जिसका नायक लूट का माल खुद के लिए घर लाता था और उसकी मां बड़े जतन से उन पैसों को संभाल कर रखती थी.तो दबंग के आने तक मेरे बचपन की स्मृतियों का असुर एक खलनायक से नायक बन चुका था.
आज के समय में अपने आसपास की छवियों से जो सोच बनी है, वह यह है कि हम सबमें देव और दानव, दोनों ने मानो अघोषित गंठबंधन कर लिया है. जब जिसकी प्रकृति भारी पड़ती है, वही चांस पर डांस कर लेता है. इसलिए यह वक्त किसी भी तरह दोनों के बीच सही संतुलन साधने की कोशिशें करने का है. मन से ‘रावण’ को बाहर निकाल कर ‘राम’ को पेइंग गेस्ट रखने का है.
लेकिन, अपने मन से रावण को बाय-बाय कहें तो कैसे? मन के रावण का मतलब भय है. हमारे मन में छोटे-छोटे भय बैठे होते हैं. किसी को अंधेरे से डर लगता है, तो किसी को बढ़ते वजन से डर लगता है. किसी को गाड़ी चलाने से तो किसी को अंगरेजी से. तो चलिए, इस साल दशहरा के मौके पर अपने मन में छिपे किसी एक भय का पुतला दहन कर देते हैं.
जरा सोचें कि वह एक बुरी आदत, जो हमारे पूरे व्यक्तित्व को कठघरे में खड़ा कर देती है, उसे बदलने का प्रयास सच्चे मन से क्यों नहीं होता. अपनी जिंदगी में उस एक व्यक्ति को माफ कर देने की काेशिश भी करनी चाहिए, जिस पर हम काफी समय से खफा हैं. वजह चाहे जो भी हो.
उस गुस्से से चाहे उसका कुछ भी न बिगड़े, हमारा खून जरूर जलता है. फिर क्यों न हम अपने सोच को सकारात्मक दिशा में लगा कर अपनी इस दशा पर विजय पा लें. चलिए, इस विजयदशमी पर किसी को माफ कर दें. क्या पता हमारी किसी अनजानी भूल पर कोई हमें भी इसी तरह माफ कर दे.
आएं, इस विजयदशमी हम यह संकल्प करें कि हम खुद में एक ऐसे गुण का विकास करने की कोशिश करेंगे, जिसे फिलहाल खुद में नहीं पाते हैं. चाहे वह खुद को ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ मोड में रखने की बात ही क्यों न हो, अकसर हमें हर मुद्दे पर अपना नजरिया ही सबसे सटीक लगता है.
हमारे ऑल इन्क्लूसिव व्यक्तित्व की सहिष्णुता खोती जा रही है. फिर क्यों न हम इस विजयदशमी पर अपने अहम् का ही विसर्जन करने की कोशिश करें, ताकि जिंदगी का कुछ हास्य और परिवेश के कुछ व्यंग्य हमसे भी दोस्ती कर सकें.
जमाना डिजिटल हो चुका है. आइए, अपने-अपने मन की एक सेल्फी भी खींचते हैं. तो इस बार अपनी कौन सी छवि फेसबुक पर डालेंगे आप? राम की या फिर…

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