नये कदली-पत्र पर लिखा वह नाम
।।डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।(वरिष्ठ साहित्यकार)कोलकाता के राजस्थानी समाज में वे न तो वसंत कुमार बिरला की तरह बड़े उद्योगपति थे, न कन्हैया लाल सेठिया की भांति बड़े साहित्यकार और न ही सीताराम सेकसरिया जैसे बड़े समाजसेवी. वे उस नन्हीं–सी चिड़िया की तरह थे, जिसने जंगल में लगी आग को अपनी छोटी–सी चोंच से पानी भर–भर कर […]
।।डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
कोलकाता के राजस्थानी समाज में वे न तो वसंत कुमार बिरला की तरह बड़े उद्योगपति थे, न कन्हैया लाल सेठिया की भांति बड़े साहित्यकार और न ही सीताराम सेकसरिया जैसे बड़े समाजसेवी. वे उस नन्हीं–सी चिड़िया की तरह थे, जिसने जंगल में लगी आग को अपनी छोटी–सी चोंच से पानी भर–भर कर उसे बुझाने की कोशिश की थी. वह आग थी भारतीय समाज में व्याप रही अपसंस्कृति की और उद्यमियों के मानस से दूर होती जा रही साहित्य–संस्कृति की. वे व्यवसायी के घर पैदा जरूर हुए थे, मगर उन्होंने इस जुए को तभी तक अपने कंधों पर रख कर घसीटा, जब तक उनके दोनों पुत्रों के कंधे कच्चे थे. उसके बाद उन्होंने मुड़ कर देखा भी नहीं कि उनका परिवार कैसे चल रहा है. उन्होंने साहित्य, संगीत और कला की नि:स्पृह सेवा का मन बना लिया था और यही वे आखिरी सांस तक करते रहे.
रवींद्र सरोवर के उत्तरी मुहाने पर सुप्रसिद्ध गायक हेमंत कुमार और प्रसिद्ध प्रकाशक कृष्णचंद्र बेरी के घर से कुछ ही दूरी पर स्थित 5 कबीर रोड के अनाम अपार्टमेंट में उनका फ्लैट था, जिसका एक कमरा उनका आवास भी था और ‘मित्र मंदिर’ का कार्यालय भी. उसी छोटे-से कमरे में बैठ कर उन्होंने इतने बड़े-बड़े काम कर दिखाये, जो बड़ी संस्थाएं सोच भी नहीं सकती थीं. नाम था श्याम सुंदर झुनझुनवाला, मगर मित्रगण उन्हें श्यामबाबू कह कर बुलाते थे. गत सोमवार, 21 अक्तूबर को लगभग 82 वर्ष की आयु में वे कोलकाता के सांस्कृतिक जगत में एक बड़ा शून्य छोड़ कर विदा हो गये. कई वर्षो से वे तमाम रोगों से एक साथ जूझ रहे थे. वे जी रहे थे, तो सिर्फ ‘मित्र मंदिर’ के लिए, जो उनके लिए मात्र एक संस्था नहीं, बल्कि ‘हारिल की लकड़ी’ थी. 25 साल पुरानी यह संस्था उनकी जान थी. वे दिन-रात इसे ही ओढ़ते-बिछाते थे. नवंबर में वे इसकी रजत जयंती बड़े भव्य रूप में मनाना चाहते थे. सभी ज्ञानेंद्रियां अशक्त हो गयी थीं, फिर भी वे जुटे रहते थे.
आज से 25 साल पहले, 1988 में कार्तिक पूर्णिमा की दूधिया रात में उन्होंने नयी संस्था ‘मित्र मंदिर’ बनायी थी, जिसका आदर्श-वाक्य वैदिक सूक्त ‘सर्वा आशा मम मित्रं भवंतु’ रखा और जिसका उद्देश्य ‘साहित्य-संगीत-कला को समर्पित संचेतना केंद्र’ के रूप में मानव समाज की सेवा करना था. पहले वे स्वयं संचालन करते थे, लेकिन बाद में यह काम मुझे थमा दिया, क्योंकि मंच अनावश्यक जमे रहना उन्हें पसंद नहीं था. मित्रों में उनकी छवि एक ऐसे समाजसेवी की रही, जो कृपणता की सीमा तक मितव्ययी होकर भी बड़े से बड़ा कार्य संपन्न कर सकता है. इसलिए जब वे किसी कार्यक्रम के लिए धन जुटाने चले, तो कभी उन्हें निराशा नहीं हुई, क्योंकि सदस्यों को पूरा विश्वास था कि श्यामबाबू और अपव्यय- दोनों दो छोर हैं.
साहित्यकारों और कलाकारों को वे धन से नहीं, बल्कि मान-सम्मान देकर अपने मंच की ओर आकृष्ट करते थे. सभी भाषाओं और सभी विचारधाराओं के प्रतिष्ठित लोग उनके आयोजन में आये और सबको यही अनुभव हुआ कि ‘मित्र मंदिर’ के मंच पर आकर उनका गौरव बढ़ा है. पिछले 25 वर्षो में साहित्य, संगीत और कला के साथ-साथ अध्यात्म और समाजसेवा क्षेत्र की सैकड़ों विभूतियां उस मंच पर आयीं और सबको रसखान की गोपियों की भांति प्रेम और आत्मीयता की ‘छछिया भर छाछ पर’ नाचने के लिए उन्होंने विवश कर दिया. उनका जुनून था कि हर क्षेत्र का शीर्षस्थ व्यक्ति उनके मंच पर आये और उसमें वे पूर्ण सफल भी हुए. वरेण्य आध्यात्मिक गुरु, साहित्यकार, संगीतकार और कलाकार यदि अत्यंत सहजता से ‘मित्र मंदिर’ के लिए उपलब्ध हो गये, तो यह करिश्मा श्यामबाबू का ही था. ऐसे साहित्यकारों, संगीतकारों और कलाकारों की संख्या सैकड़ों में है, जिनमें से एक-एक को बुलाने में अन्य संस्थाओं को पसीना छूट जाता. नगरवासी साहित्यकारों पर तो जैसे उनका हक ही था, जब चाहें, पुकार लें. छुट्टी के दिनों में न जाने कितनी दोपहरें उनके कमरे में बैठ कर मैंने भावी रूपरेखा बनाने में बितायी होगी.
श्यामबाबू अनिच्छुक श्रोताओं की भीड़ जुटाने के बजाय रस-पिपासु मर्मज्ञ श्रोताओं को एकत्र करने पर ज्यादा बल देते थे. उन दिनों कोलकाता और पोर्ट ब्लेयर के आकाशवाणी-दूरदर्शन कवि सम्मेलनों में जो साहित्यकार आते थे, उनके आवास-परिवहन आदि की व्यवस्था इसी संस्था की ओर से होती थी. बदले में वे रविवार की सुबह ‘लेक पार्क’ में होनेवाली इसकी साप्ताहिक बैठक में सारस्वत योगदान कर देते थे. इस तरह देश भर के साहित्यकार-कलाकार इससे जुड़े. ‘कबीर’ और ‘सूरदास’ जैसी एकल प्रस्तुति से छा जानेवाले शेखर सेन (मुंबई) की जब शादी हुई, तो वर-वधू का पहला अभिनंदन इसी मंच पर हुआ. इस मंच पर मैने पंडित जसराज को अश्रुपूरित नयनों से कालिका को अलापते देखा है. श्यामबाबू स्वादिष्ट भोजन के भक्त थे. इसलिए ‘मित्र मंदिर’ के कार्यक्रम नवरस के साथ-साथ षटरस का सुख देने के लिए भी अति लोकप्रिय थे. खास कर कार्तिक पूर्णिमा, दीवाली और होली के आयोजनों का तो सदस्यों को इंतजार रहता था. भोजपुरी फिल्मों के सुपर स्टार मनोज तिवारी मात्र कुछ सौ रुपये पर यहां फाग गा चुके हैं.
श्यामबाबू की पहल पर ‘मित्र मंदिर’ ने आर्य बुक डिपो, नयी दिल्ली के सुखलाल गुप्त के साथ मिल कर श्रेष्ठ काव्यग्रंथों को प्रकाशित करने की योजना बनायी और उसके तहत जोड़ा ताल (कैलाश गौतम), एक ऋचा पाटल को (सोम ठाकुर), समय अब सहमत नहीं (रामचंद्र चंद्रभूषण), देखता कौन है (उदय प्रताप सिंह), नदी का अकेलापन (माहेश्वर तिवारी) जैसे चर्चित संग्रह निकले. इसके अलावा यह संस्था अन्य प्रकाशित पुस्तकों को भी थोक में खरीद कर सदस्यों और अतिथियों को बांटती थी.
मेरे कोलकाता छोड़ने से सबसे अधिक मर्माहत श्यामबाबू ही हुए. जादवपुर में जब मैने छोटा-सा फ्लैट खरीदा, तो उसका गृह-प्रवेश जिस भव्य रूप में उन्होंने स्वयं खड़े होकर संपन्न कराया, वह चिरस्मरणीय है. इसी तरह, मेरे बच्चों के वैवाहिक अनुष्ठानों में मुझसे ज्यादा उत्सुक और चिंतित वही रहे. मैत्री और प्रेम को समर्पित उस कर्मयोगी की आज परम आवश्यकता है. उनकी स्मृति को अर्पित हैं चंद पंक्तियां, जिन्हें वे जीवन-दायी मंत्र की तरह दुहराया करते थे :
नये कदली-पत्र पर नख से, लिख लिया मैंने तुम्हारा नाम।
और कितना हो गया जीवन, भागवत के पृष्ठ-सा अभिराम।।