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युवाओं में ‘नशे’ का ‘एकांत’

व्यालोक स्वतंत्र टिप्पणीकार वह धराशायी था. जमीन पर चारों खाने चित्त. उसके माथे पर एक स्थानीय उम्मीदवार के नाम की टोपी थी, टी-शर्ट भी वोट देने की अपील करनेवाला था. उसका एक हाथ गंदी नाली में था और चेहरे पर दर्जनों मक्खियां भिनभिना रही थीं. सुबह बीत चुकी थी और अभी तक सूरज की प्रखरता […]

व्यालोक

स्वतंत्र टिप्पणीकार

वह धराशायी था. जमीन पर चारों खाने चित्त. उसके माथे पर एक स्थानीय उम्मीदवार के नाम की टोपी थी, टी-शर्ट भी वोट देने की अपील करनेवाला था. उसका एक हाथ गंदी नाली में था और चेहरे पर दर्जनों मक्खियां भिनभिना रही थीं. सुबह बीत चुकी थी और अभी तक सूरज की प्रखरता गयी नहीं थी, लेकिन वह दीन-दुनिया से बेखबर, नशे के अथाह महासागर में गोते लगा रहा था-

दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं आस्तां नहीं…

बिहार में चुनावी मौसम है, सो दारू दयानतदारी से बंट रही है. लेकिन, यहां जिस किशोर की बात हो रही है, वह अकेला उदाहरण नहीं है. वह किसी के नामांकन जुलूस में गया हुआ था, जहां ‘हाला’ की अतिशयता ने उसे सड़क पर औंधे मुंह गिरा दिया था.

जिस बिहार में लगभग 60 फीसदी आबादी युवाओं (18 से 35 वर्ष) की है, वहां के वर्तमान हालात काफी चिंताजनक हैं.

एलपीजी (उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण) की बयारों ने यहां के सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने को झकझोर कर रख दिया है. लोग पूछते हैं कि बिहारी किसान आत्महत्या क्यों नहीं करता, जबकि उसके हालात कहीं अधिक खराब हैं? मुझे लगता है, इसके पीछे कोई खास वजह नहीं, बल्कि सामाजिकता के पायों का मजबूती से जमे रहना ही है (या था). लेकिन अब वे पाये भी छिटक रहे हैं.

मुझे याद है कि आज से 15 वर्ष पहले मोहल्ले का कोई भी आदमी या औरत बच्चों-किशोरों को डांट सकता था, कोई काम कह सकता था, क्योंकि तब यहां दादा-दादी, काका-काकी और भैया-भाभी रहते थे, मिसेज या मिस्टर अलाना-फलाना नहीं. तब किसी किशोर का पान खाना विद्रोही कदम माना जाता था. लेकिन अब सरेआम-सरेशाम पान के खोकों के आगे बैठ कर किशोर, युवा और अधेड़ जाम टकराते हैं. उन्हें कुछ कहने की हिम्मत किसी में नहीं, लोग आंखें बचा कर निकल जाने में कुशल समझते हैं.

इसकी दो वजहें हैं. उदारीकरण की आंधी ने बच्चों-किशोरों से उनके खेलने के मैदान तो छीन ही लिया है (ज्यादातर इलाकों में मैदानों पर भू-माफियाओं ने कब्जा कर वहां अपार्टमेंट बना दिया है), सघन बेरोजगारी ने उनके सामने गहरी ऊब, अकेलापन और तनाव का त्रिदोष पैदा कर दिया है. बची-खुची कसर मोबाइल और स्मार्टफोन ने पूरी कर दी. अबाधित और बेरोक-टोक इंटरनेट ने युवाओं को वह सब कुछ देख लेने की सुविधा दे दी है, जिसे पचा लेने की सलाहियत अभी उनके पास है ही नहीं.

नशाखोरी अकेलेपन और ऊब से पैदा होती है. जिन बच्चों के पास स्मार्टफोन नहीं हैं, गरीबी की वजह से जो कम उम्र में कमाने को अभिशप्त हैं, उनका साथी यही नशा अपने विभिन्न रूपों- शराब, थिनर (सूंघना), भांग और गांजा आदि के रूप में उपलब्ध है. बहुत आसानी से शराब या किसी भी नशे की उपलब्धता (नेपाल सीमा सटी होने की वजह से गांजा-हेरोइन आसानी से मिलता है) इस क्षेत्र यानी मिथिलांचल की समस्या को और भी पेचीदा बना रही है.

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