यह मुंह और अरहर की दाल!

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार महंगाई के कारण आदमी की ही नहीं, मुहावरों की भी हालत खराब है. दालों ने महंगी होकर ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ वाले मुहावरे को उलट कर ‘घर की दाल मुर्गी बराबर’ तो काफी पहले ही कर दिया था. तब से लोग दाल छोड़ मुर्गी यानी चिकन खाने लगे और […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 31, 2015 1:58 AM
डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
महंगाई के कारण आदमी की ही नहीं, मुहावरों की भी हालत खराब है. दालों ने महंगी होकर ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ वाले मुहावरे को उलट कर ‘घर की दाल मुर्गी बराबर’ तो काफी पहले ही कर दिया था. तब से लोग दाल छोड़ मुर्गी यानी चिकन खाने लगे और फलस्वरूप चिकन की अम्मा फिक्रमंद हो उसकी खैर मनाने लगी.
लेकिन नये-नये बने एक मुहावरे के अनुसार, चिकने (चिकन से मतलब है) की अम्मा भला कब तक खैर मनायेगी? सही भी है, क्योंकि जब बकरे की अम्मा ही ज्यादा देर तक उसकी खैर नहीं मना पाती, तो वह तो फिर चिकन की अम्मा ठहरी. काजी जी के दुबलेपन का कारण भी अब शहर का नहीं, बल्कि दाल का अंदेशा हो गया है और मुहावरा बदल कर कुछ इस तरह हो गया है- काजी जी दुबले क्यों, दाल के अंदेशे से!
लगातार बढ़ती महंगाई ने ताजा उलटफेर ‘यह मुंह और मसूर की दाल’ वाले मुहावरे में किया है. अब यह मुहावरा बदल कर ‘यह मुंह और अरहर की दाल’ हो गया है. सुबह की सैर करते समय पार्क में एक लंगोटिया, मतलब लंगोट पहन कर कसरत करता मित्र मिला. उसका हालचाल पूछने पर तड़ी से बोला कि पता है, रात हमने अरहर की दाल खायी! उसे इस तरह दो सौ रुपये किलो तक पहुंच गयी अरहर की दाल खाने का रोब झाड़ते देख कर मेरे मुंह से बेसाख्ता निकल गया- यह मुंह और अरहर की दाल!
मसूर की दाल सदियों से उच्च वर्ग के खान-पान, सौंदर्य-प्रसाधन और तंत्र-मंत्र का हिस्सा रही है, इसलिए मुंह से अचानक यह निकल जाना स्वाभाविक समझा जाता रहा है कि यह मुंह और मसूर की दाल! और तो और, हमने अपने कुछ मशहूर शहरों के नाम भी उसके नाम पर रखे. आप यह जान कर हैरान होंगे, और बाद में इस जानकारी के गलत निकलने पर हो सकता है और ज्यादा हैरान हों, कि कर्नाटक प्रदेश के मैसूर शहर का नाम मसूर का ही बना या बिगड़ा हुआ रूप है.
जरूर वहां के राजवंश को मसूर की दाल इतनी ज्यादा पसंद रही होगी कि उसके नाम पर पूरा शहर ही बसा दिया. वैसे भी मैसूर राजघराने को अभी पांच महीने पहले ही 23-वर्षीय यदुवीर वडियार के रूप में नया राजा मिल गया है. देखना है कि अरहर की दाल के इस जमाने में मसूर की दाल से उनका लगाव कब तक टिका रहता है. पहाड़ों की रानी मसूरी का भी मसूर की दाल से कुछ न कुछ घनिष्ठ संबंध रहा हो सकता है, जिसका पता पुरातत्त्वविदों, इतिहासकारों और भाषावैज्ञानिकों को मिल कर लगाना चाहिए.
मसूर की दाल फिल्मों में भी हिट रही है. फिल्म ‘बारिश’ में देवानंद को नूतन यह गाकर ही छेड़ती है- जरा देखो तो सूरत हुजूर की, ये मुंह और दाल मसूर की. फिल्म ‘अराउंड द वर्ल्ड’ में नंदा राजकपूर के साथ यही सलूक यह गाकर करती है- ये मुंह और मसूर की दाल, वाह रे वाह मेरे बांकेलाल.लेकिन हाय रे महंगाई, जिसने मसूर को उसके पद से अपदस्थ कर अरहर को उसकी जगह पर पदासीन कर दिया.

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