एकता को लेकर सत्ता का अंतर्विरोध
पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार मुंबई का दादर इलाका. गुरुवार रात साढ़े ग्यारह बजे. जगह नेचुरल आइसक्रीम की दुकान. चंद लड़के करीब आते हैं. मोदी सरकार के एक कैबिनेट मंत्री और मुझे देख कर कहते हैं- ‘हैलो गायज! आइ हैव सीन यू बोथ ऑन टीवी!’ और आगे बढ़ जाते हैं. मेरे मुंह से बरबस निकलता […]
पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
मुंबई का दादर इलाका. गुरुवार रात साढ़े ग्यारह बजे. जगह नेचुरल आइसक्रीम की दुकान. चंद लड़के करीब आते हैं. मोदी सरकार के एक कैबिनेट मंत्री और मुझे देख कर कहते हैं- ‘हैलो गायज! आइ हैव सीन यू बोथ ऑन टीवी!’ और आगे बढ़ जाते हैं. मेरे मुंह से बरबस निकलता है- मंत्रीजी, मेरा तो ठीक, आपकी पहचान भी टीवी की! यही मुंबई है. लेकिन, इसी मुंबई में एक तरफ शिवसेना है, तो दूसरी तरफ भाजपा भी है, जो अपने-अपने तरीके से हिंदू राष्ट्र और हिंदुत्व की व्याख्या कर रही है.
एक के लिए हिंदू राष्ट्र का मतलब पाकिस्तान और अल्पसंख्यकों का विरोध है, तो दूसरे के लिए हिंदुत्व जीने का तरीका है, जिसमें विवेकानंद का भी जिक्र है. ऐसे हालात में ही महाराष्ट्र सरकार का एक साल पूरा हुआ है, पर शिवसेना का मंत्री कह रहा है कि हमारे तो अभी दस महीने ही हुए हैं, क्योंकि शिवसेना दो महीने बाद सरकार में शामिल हुई थी. तो जिस गंठबंधन की गाड़ी के दो पहियों की दिशा अलग-अलग हो, उसमें कितनी एकता होगी!
दूसरी ओर राजधानी दिल्ली में शुक्रवार को बच्चा स्कूल से आते ही मां को बताता है- कल सुबह साढ़े पांच बजे ही स्कूल पहुंचना है. केंद्रीय विद्यालय के सभी बच्चों को यह निर्देश है, क्योंकि उन्हें ‘रन फॉर यूनिटी’ में शामिल होना है. सरदार पटेल की जयंती पर शनिवार सुबह राजपथ पर ‘रन फॉर यूनिटी’ में प्रधानमंत्री भी मौजूद होंगे.
और इसी शुक्रवार को राजधानी के अखबारों में राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष का बयान छपा है कि बिहार के चुनाव में यदि उनका गंठबंधन हार जाता है, तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे. तो जरा कल्पना कीजिए कि देश में ‘एकता’ के लिए सियासत किन-किन स्थितियों का इस्तेमाल कर रही है!
देश के भीतर ऐसे कई दौर आये, जिसमें देश ने दंगे भी देखे, इमरजेंसी भी देखी, सामाजिक कटुता भी देखी, लोगों का आक्रोश भी देखा. लेकिन पहली बार यह सवाल हर किसी के जेहन में है कि समाधान के लिए किसे देखें? जब मुंबई के प्रेस क्लब में जाने-माने फिल्मकार जमा होते हैं और अपने-अपने राष्ट्रीय सम्मान लौटाने की घोषणा करते हैं, तो बताते हैं कि यह सम्मान हमें संविधान के तहत दिया गया है और हमें लग रहा है कि संविधान के तहत काम करनेवाली सरकारें अब आम नागरिकों को संविधान के तहत प्रदत्त अधिकारों की रक्षा नहीं कर पा रही है. सम्मान लौटाते हुए दुखी हूं, लेकिन गुहार लगाएं तो कहां?
और इसके 24 घंटे बाद न सिर्फ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, बल्कि केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी भी, जो महाराष्ट्र से ही आते हैं, के पास दो जवाब होते हैं- पहला, जब सरकार हमारी है तो एफटीआइआइ में कौन चेयरमैन होगा, यह स्टूडेंट तय करेंगे या हम? और दूसरा, सम्मान लौटानेवाले लोग विचारधारा की लड़ाई लड़ रहे हैं, कोई वामपंथी है तो कोई कांग्रेसी. लेकिन, जिस इमरजेंसी का जिक्र करके ये पूछते हैं कि तब किसी ने सम्मान क्यों नहीं लौटाया, उसी इमरजेंसी का बालासाहब ठाकरे ने समर्थन किया था, जिनकी शिवसेना के साथ बीजेपी खड़ी है!
साहित्यकारों और फिल्मकारों के बाद अगर देश के वैज्ञानिक और इतिहासकार भी सम्मान लौटानेवालों की कतार में जुड़ रहे हैं, तो देश के सामने दो नये सवाल उभरे हैं. पहला, क्या आजादी के बाद का इतिहास फिर से लिखा जायेगा?
और दूसरा, क्या जिस देश में संविधान के तहत संसदीय लोकतंत्र का गठन किया गया, उसमें अब हिंदुत्व की व्याख्या को संविधान से भी ऊपर रखा जायेगा? हिंदुत्व को लेकर अगर सत्ताधारी दल की धारणा है कि यह जिंदगी जीने का तरीका है, तो क्या माना जाये कि स्वयंसेवक प्रधानमंत्री देश के इतिहास को एक नयी सोच के साथ रचना चाह रहे हैं?
यह सवाल इसलिए भी, क्योंकि नयी सरकार के दौर में स्वायत्त संवैधानिक संस्थानों में जो 24 नियुक्तियां हुई हैं, उन सभी के कोई-न-कोई ताल्लुकात बीजेपी या संघ से रहे हैं. हालांकि, एक विचारधारा के लोगों को नियुक्त करने का काम कांग्रेस ने भी किया है और वामपंथियों ने भी. लेकिन, पहली बार है ज्यादातर नियुक्तियों में संस्थान की गरिमा के अनुरूप न्यूनतम योग्यता का भी ख्याल नहीं रखा गया है.
तो क्या यहां से संस्थानों के ढहने की भी शुरुआत होगी? इस बीच राजनीतिक सत्ता ने प्रतीकात्मक तौर पर माना है कि चुनी हुई सत्ता के पास ही सारे अधिकार होने चाहिए. जजों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मद्देनजर केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली जब कहते हैं कि चुनी हुई सरकार से इतर गैर चुने हुए लोगों का निरंकुश तंत्र इस देश में कैसे चल सकता है, तो सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या चुनी हुई सत्ता का निरंकुश तंत्र इस देश को मंजूर होगा, जबकि संविधान ने ‘चेक एंड बैलेंस’ के तहत न्यायपालिका को भी महत्वपूर्ण स्तंभ माना है.
इस समय मोदी सरकार के डेढ़ साल हुए हैं, तो महाराष्ट्र और हरियाणा सरकार के भी एक साल पूरे हुए हैं. लेकिन विपक्ष जिन मुद्दों को लेकर हमलावर है, उनमें गोवंश और बीफ, दलितों की हत्या, शिवसेना के फरमान प्रमुख हैं. कट्टर हिंदुत्ववाद के तहत खानपान को लेकर, या अलग-अलग राज्यों में साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों पर जो हमले हुए हैं, उनके आरोपितों के तार देखें तो यह किसी एक राज्य की कानून-व्यवस्था का मसला नहीं है, बल्कि देशव्यापी संकट है.
जिन मुद्दों को संयोग से साहित्यकारों ने सबसे पहले उठाया, और अब फिल्मकारों ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को जो पत्र भेजे हैं, उनमें ‘भारत की अनेकता में एकता’ का जिक्र महत्वपूर्ण है. इसका जिक्र राष्ट्रपतिजी ने भी अपने संबोधन में दो बार किया और प्रधानमंत्री ने कहा कि राष्ट्रपति की बात हर किसी को माननी चाहिए.
इसके बावजूद अगर देश में एक बड़ा तबका खौफजदा है, तो सवाल यह भी है कि क्या आनेवाले वक्त के चुनाव सीधे तौर पर देश की सामाजिक एकता पर हमला करेंगे?
सीबीएसइ सिलेबस के तहत तैयार इतिहास की किताब में आजादी के वक्त की परिस्थितियों का भी जिक्र है, जिसमें दर्ज है कि महात्मा गांधी की हत्या के वक्त सरदार पटेल ने किन सवालों को उठाया था.
देश की एकता को पिरोने में सरदार पटेल के योगदान को पढ़नेवाले स्कूली बच्चे शनिवार को जब ‘रन फॉर यूनिटी’ के लिए राजपथ पर पहुंचेंगे, तब उनके मन में क्या कुछ सवाल नहीं होंगे? कोई राजनीतिक दल सत्ता में रहते हुए जिन कर्मों को कर रहा है और प्रतीकात्मक तौर पर ‘रन फॉर यूनिटी’ जैसा जो आयोजन कर रहा है, उसके अंतर्विरोध को क्या हमारी नयी पीढ़ी नहीं समझेगी?