एमएमएस के फेर में दुनियादारी से मोहलत

।। लोकनाथ तिवारी।।(प्रभात खबर, रांची)काका की जुबान से एमएमएस सुन कर किशोरावस्था को पार कर चुके भतीजे के कान खड़े हो गये. काका किसी से कह रहे थे- अरे भाई, हमको तो लगता है कि ई एमएमएस ही ठीक है. इतना सुन कर भतीजा सोच में पड़ गया कि ऐसा क्या हुआ कि काका को […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 30, 2013 3:15 AM

।। लोकनाथ तिवारी।।
(प्रभात खबर, रांची)
काका की जुबान से एमएमएस सुन कर किशोरावस्था को पार कर चुके भतीजे के कान खड़े हो गये. काका किसी से कह रहे थे- अरे भाई, हमको तो लगता है कि ई एमएमएस ही ठीक है. इतना सुन कर भतीजा सोच में पड़ गया कि ऐसा क्या हुआ कि काका को हम लोगों वाली लत लग गयी. कहीं काका की आंखों पर रंगीनियों का चश्मा तो नहीं चढ़ गया है. काका बउरा तो नहीं गये हैं.

आखिर पूछ ही बैठा- का हो काका, कौन एमएमएस आपको ठीक लग रहा है? किसको एमएमएस भेज रहे हो या कोई आपको एमएमएस भेज रहा है? काहे ई सब चक्कर में पड़ रहे हो? तब काका ने घुड़कते हुए कहा, सावन के आन्हरों (अंधों)की तरह काहे बतिया रहे हो. हमरा मोबाइल में कवनो ऐसी चीज नहीं आती है, जिससे तोहनी जइसन शोहदन का सरोकार होवे. ई त कुछ लोग चरचा कर रहे थे कि आजकल फेसबुकवा जइसन कवनो जगह पर एमएमएस और नमो के बीच जंग छिड़ी है. तब हमको पता चला कि ई सब राजनीति का चरचा कर रहे हैं. एमएमएस माने हमारे परधान-मंत्री मनमोहन सिंह. राजनीतिक बहस में पड़ना हम जैसे लोगों को शोभा नहीं देता. हम तो चौपाल, पंचायत, चट्टी और खेत-खलिहानों में ही अपनी बात कह-सुन लेते हैं. इसी बहाने घर-दुआर और परिवार की छोटी-मोटी समस्या भी सुलझा लेते हैं.

काका और भतीजे के बीच फिर एमएमएस और नमो को लेकर बहस लंबी खिंची. इस बहस का नतीजा भले ही कुछ न निकले, लेकिन नमो बनाम एमएमएस की लड़ाई से आम लोगों को थोड़ी राहत जरूर मिली है. अब आप पूछेंगे, ई कइसे? अरे भई, इसी चरचा में हम अपनी समस्याओं को थोड़ी देर के लिए भूल जाते हैं. आपसी वैमनस्यता व विवाद के दायरे को राष्ट्रीय लुक देते नजर आते हैं. एक दूसरे में मीन- मेख निकालने की जगह देश के नेताओं की बखिया उधेड़ते हैं. लाख टके की बात यह है कि हम महंगाई के आतंक से खुद को परे रखने की असफल कोशिश करते रहते हैं.

नमो और एमएमएस के चरचे में थोड़ी देर के लिए यह भूल जाते हैं कि बिटिया की शादी और बबुआ की फीस देने के लिए कर्ज लेने की नौबत आ गयी है. रोज का खर्चा चलाना भी दूभर होता जा रहा है. एक साथ एक किलो प्याज खरीदना स्टैटस सिंबल बन गया है. प्याज का भाव पूछते समय दुकानदार औकात परखने लगता है. अब तो किसी को ‘किस खेत की मूली हो’ कहते भी नहीं बनता. मूली का भाव आसमान भले न छुए, लेकिन तरकुल तक जरूर पहुंच गया है. लगता है, समोसे में आलू को चिरकाल तक टिकाये रखनेका नारा देने वाले लालू भइया के भीतर जाने से आलू भी गुस्से में है. नमो और एमएमएस की बहस से दुनियादारी की इस फजीहत से थोड़ी देर के लिए मोहलत तो मिल ही जाती है.

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