मोदी की जीत सुनिश्चित कर रहे राहुल
।। माधव नालापत।।(राजनीतिक विश्लेषक)पामुलापार्थी वेंकट नरसिंह राव के युग ने भले कांग्रेस पार्टी को यह न दिखाया हो, लेकिन भारत की जनता को तो यह संकेत दे ही दिया था कि एक 44 वर्ष पुरानी पार्टी (आखिर, 1969 में इंदिरा गांधी ने पुरानी पार्टी के टुकड़ों से ही तो नया दल तैयार किया था) की […]
।। माधव नालापत।।
(राजनीतिक विश्लेषक)
पामुलापार्थी वेंकट नरसिंह राव के युग ने भले कांग्रेस पार्टी को यह न दिखाया हो, लेकिन भारत की जनता को तो यह संकेत दे ही दिया था कि एक 44 वर्ष पुरानी पार्टी (आखिर, 1969 में इंदिरा गांधी ने पुरानी पार्टी के टुकड़ों से ही तो नया दल तैयार किया था) की सरकार को ठीक-ठाक ढंग से काम चलाने के लिए नेहरू खानदान के सदस्य को ही सरपरस्त बनाने की उनकी कोई मजबूरी नहीं है. इस नजरिये से देखें, तो देश की सत्ता पर अपना दबदबा रखनेवाली नेहरू परिवार की शाखा के लिए यह एक तरह से परम सौभाग्य की ही बात है कि प्रधानमंत्री के लिए उनकी अगली पसंद- मनमोहन सिंह, एक तरह से एक बड़े हादसे की मानिंद असफल साबित हुए.
हालांकि, कई समझदार लोगों का मानना है कि नरेंद्र मोदी के तरकश में सबसे शक्तिशाली तीर मृदुभाषी अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही हैं, लेकिन वे लोग यह बात भूल जाते हैं कि मनमोहन सिंह की गलतियों की सूची ने ही कांग्रेस के भीतर और उसके प्रति सहानुभूति रखनेवाले मतदाताओं में इस बात को लेकर मतैक्य की स्थिति पैदा कर दी है कि राहुल गांधी को, बिना कोई समय गंवाये मनमोहन सिंह से सत्ता की कमान अपने हाथों में ले लेनी चाहिए. प्रधानमंत्री की कुर्सी पर यह बदलाव अगर चुनाव के पहले हो, तो कांग्रेस का आंकड़ा जरूर बढ़ेगा. लेकिन, इस बदलाव को जितना टाला जायेगा और यह फैसला चुनाव के दिन के जितने करीब आने पर लिया जायेगा, उसी अनुपात में इसका फायदा भी कम होगा.
यह फायदा इस बात पर निर्भर करता है कि कांग्रेस के वारिस अपनी आंसू बहानेवाली भावुकता से पीछा छुड़ाएं- जो मिल्स एंड बून की कहानी सरीखी दिखती है. वह अपना भाषण शासन पर केंद्रित करें और बताएं कि देश के प्रशासन के मौजूदा बदहाल स्तर को सुधारने के लिए उनके पास कौन सी गोली है? कांग्रेस उपाध्यक्ष के पिता और दादी के लिए पिछले वर्षो में काफी आंसू बहाया जा चुका है. इसमें कोई शक नहीं कि दोनों की मौत दुखद थी और दोनों ही दुर्घटनाओं ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया. लेकिन, जहां तक इन मौतों के लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहराने की बात है, अब तक आइबी या सीबीआइ ने भी कोई ऐसा पुख्ता सबूत नहीं दिया है, जो खालिस्तान आंदोलन के पीछे आइएसआइ की जगह नरेंद्र मोदी का हाथ होने की ओर इशारा करे. न स्वर्ण मंदिर में शरण लिए भिंडरावाले की सैन्य कार्रवाई में हुई मौत के लिए ही उनकी कोई जिम्मेवारी साबित होती है!
अगर किसी भाजपा नेता के बेअंत सिंह और सतवंत सिंह से मिलने और उनको वह कुकृत्य करने को उकसाने का कोई रिकॉर्ड है भी, तो वह, दिल्ली में मौजूद बहुतेरी चीजों के साथ जनता से छिपा हुआ है. इसी तरह, अगर इस इशारे को भी मान लें कि भाजपा (अब मोदी के नेतृत्व वाली), दूर से ही सही, राजीव गांधी की हत्या के पीछे थी, तो भाजपा नेताओं और लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण के बीच के विस्तृत संपर्क, जो धनु द्वारा राजीव गांधी की हत्या से पहले ही कभी संभव हुआ होगा, अब तक राज की चादर के भीतर छिपा हुआ ही है.
जहां तक मुजफ्फरनगर का सवाल है, तो लगता है कि वहां आजम खान की किसी किस्म की कथित भूमिका खुफिया ब्यूरो के उन अधिकारियों के ध्यान में नहीं आ पायी है, जो कि जाहिर तौर पर राहुल गांधी को लगातार और पूरी तत्परता से रिपोर्ट देते हैं. हालांकि, यहां जिंदगियों को बचाने में राज्य सरकार की घनघोर नाकामी- जो शायद जानबूझ कर की गयी- भी काबिलेगौर है.
जहां तक गुजरात की बात है, तो 2002 में गोधरा कांड के बाद हुए दंगे, मोदी के शासनकाल में हुए पहले और अब तक के आखिरी दंगे थे. बात उत्तर प्रदेश की करें, तो युवा चेहरे अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य में दंगों की लड़ी लग गयी है, लेकिन, समाजवादी पार्टी को अब भी यह सीखना बाकी है कि जिस तरह से मोदी ने पिछले 11 वर्षो में सांप्रदायिकता की आग को भड़कने से रोकने में कामयाबी हासिल की है, वह आखिर कैसे किया जाता है?
2009 में यूपीए-2 की सरकार बनने के एक साल बाद से ही, यानी कम से कम पिछले चार वर्षों से, यह साफ है कि 2014 के चुनाव दरअसल, राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच जनमत-संग्रह ही होंगे. इस तथ्य का ध्यान रखा जाना चाहिए कि ज्यादा नहीं, महज दो साल पहले तक, राहुल गांधी ने गुजरात के महारथी पर ठीक-ठाक बढ़त बना रखी थी. लेकिन, पिछले दो वर्षो में हालात धीरे-धीरे बिल्कुल उलटे हो गये हैं. हर बीतते महीने के साथ, मोदी का आकर्षण मतदाताओं के बीच बढ़ता गया है, जबकि राहुल का आधार खिसकता नजर आ रहा है. राहुल शायद यह भूल गये हैं कि उनका परिवार भारत का एकमात्र ऐसा परिवार नहीं है, जिसने दुख ङोला है.
भारत में होने वाले विभिन्न दंगों या रेलवे दुर्घटनाओं में, परिवार के परिवार लुप्त हो गये हैं. इन असुरक्षित वर्षो में सैनिक और पुलिस अधिकारी बढ़ती बारंबारता के साथ मर रहे हैं. ऐसा हर हादसा अपने पीछे उतने ही दर्द और गुस्से में डूबा हुआ परिवार छोड़ जाता है, जैसा राहुल गांधी ने इंदौर में दिखाया. खुद अपना दर्द और गुस्सा दिखाना, वोटों को आकर्षित करने में कम मददगार साबित होता है. राजनीति में दूसरों के दर्द के प्रति सहानुभूति प्रकट करने की जरूरत होती है. कांग्रेस के रणबांकुरे जितनी अधिक लिजलिजी भावुकता से काम लेंगे, वे जितना ज्यादा पुराने पड़ चुके वृत्तांत को कांग्रेस का धर्मग्रंथ बनाने की कोशिश करेंगे, उतने अधिक वोट नरेंद्र मोदी की ओर जायेंगे.
सचमुच, ऐसा लग सकता है कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के गुजरात में जन्मे प्रत्याशी 2014 के लोकसभा चुनाव में 220 संसदीय सीटों को पाने वाले हैं, या उसके करीब हैं. इस स्तंभकार ने उनके चुनाव समिति का अध्यक्ष बनने पर भी ऐसी संभावना जताई थी. मनमोहन सिंह भले ही राहुल गांधी की अपील को बढ़ाने में मदद कर रहे हैं, लेकिन ऐसा अधिकतर उनकी अपनी ही पार्टी के अंदर हो रहा है. राहुल गांधी जितने अधिक आंसूबहाऊ उद्गार निकालेंगे, नरेंद्र मोदी की जीत उतनी ही सुनिश्चित होगी.
(द संडे गाजिर्यन से साभार, अनुवाद : व्यालोक)