भाषाओं को तो बख्श दें !
अमूमन भाषाएं व्यक्ति को सांस्कृतिक पहचान देती हैं. हर किसी को सभी भाषाओं की गरिमा का ख्याल रखते हुए उचित सम्मान देना चाहिए, लेकिन बहुभाषी परंपरा के केंद्र भारत में कई राज्य ऐसे हैं जहां भाषाओं को लेकर आज धड़ल्ले से सियासत हो रही है. भाषाओं के नाम पर परस्पर ईष्र्या व द्वेष का बीजारोपण […]
अमूमन भाषाएं व्यक्ति को सांस्कृतिक पहचान देती हैं. हर किसी को सभी भाषाओं की गरिमा का ख्याल रखते हुए उचित सम्मान देना चाहिए, लेकिन बहुभाषी परंपरा के केंद्र भारत में कई राज्य ऐसे हैं जहां भाषाओं को लेकर आज धड़ल्ले से सियासत हो रही है. भाषाओं के नाम पर परस्पर ईष्र्या व द्वेष का बीजारोपण किया जा रहा है. पिछले दिनों झारखंड के शिक्षक पात्रता परीक्षा में उत्तीर्ण भोजपुरी-मगही भाषाओं के आवेदकों की नियुक्ति रद्द करने के संबंध में शिक्षा मंत्री का बयान दुर्भाग्यपूर्ण है.
शायद शिक्षामंत्री को यह मालूम ही नहीं कि झारखंड में पलामू, गढ़वा, चतरा समेत कई जिले ऐसे हैं जहां मगही-भोजपुरी भाषियों की बहुलता है और पूर्व की सरकार ने इसी के मद्देनजर टेट की परीक्षा में इन भाषाओं को शामिल किया था. अब जब नियुक्ति की बारी आयी तो शिक्षा मंत्री अपने बेतुके बयानों से राज्य में भ्रम व अराजक स्थिति फैलाने तथा पूरी नियुक्ति प्रक्रि या को ही लटकाने की कोशिश में हैं.
शिक्षा मंत्री को यह मालूम होना चाहिए कि जब बंगाल की बांग्ला, ओड़िशा की ओड़िया झारखंड में क्षेत्रीय भाषा के रूप में मान्य हो सकती है, तब बिहार की भोजपुरी, मगही, अंगिका क्यों नहीं? उन्हें याद रखना चाहिए कि झारखंड की उत्पत्ति बिहार से हुई है और सभी शासकीय नियमावलियां भी बिहार से ही ली गयी हैं. ऐसे में पूर्वधारणाओं से ग्रसित होकर किसी भाषा विशेष को लक्ष्य करना एवं बहुसंख्य भावनाओं को आहत करने का प्रयास करना क्या सत्तारूढ़ दल के किसी मंत्री के लिए उचित है? खासकर ऐसे समय में जब राज्य बाहरी-भीतरी और स्थानीयता जैसे मुद्दों पर आज भी संवेदशील बना हुआ है और नियुक्ति प्रक्रियाएं वर्षो से अधर में लटकी हैं. गुजारिश है कि आप सियासत करें मगर भाषाओं को तो बख्श दें!
रवींद्र पाठक, जमशेदपुर