सहिष्णुता की नसीहत

देश के विकास के लिए सहिष्णुता पहली जरूरत है. एक ही दिन में यह नसीहत यदि देश के राष्ट्रपति, रिजर्व बैंक के गवर्नर और एक जाने-माने उद्योगपति की ओर से आ रही है, तो इस सवाल पर बेहद गंभीरता से गौर करने की जरूरत है कि देश में सहिष्णुता को खतरा क्यों और किससे पैदा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 2, 2015 1:34 AM

देश के विकास के लिए सहिष्णुता पहली जरूरत है. एक ही दिन में यह नसीहत यदि देश के राष्ट्रपति, रिजर्व बैंक के गवर्नर और एक जाने-माने उद्योगपति की ओर से आ रही है, तो इस सवाल पर बेहद गंभीरता से गौर करने की जरूरत है कि देश में सहिष्णुता को खतरा क्यों और किससे पैदा हो रहा है.

शनिवार को दिल्ली हाइकोर्ट के स्वर्णजयंती समारोह में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा, हमें नहीं भूलना चाहिए कि सहिष्णुता और समायोजन की अपनी ताकत के कारण ही भारत फल-फूल रहा है. महामहिम हाल में दो अन्य मौकों पर भी सहिष्णुता और असहमति की आजादी के समक्ष उत्पन्न खतरों के प्रति आगाह कर चुके हैं. उधर, आइआइटी दिल्ली के दीक्षांत समारोह में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भी कहा कि सहिष्णुता और आपसी सम्मान के जरिये हर तरह के विचारों के लिए बेहतर परिवेश का निर्माण जरूरी है. इसी दिन इन्फोसिस के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति ने भी एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में कहा कि इस समय देश के अल्पसंख्यकों के मन में भय व्याप्त है, इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों की पहली प्राथमिकता हर भारतीय के मन में यह भरोसा, ऊर्जा और उत्साह पैदा करने की होनी चाहिए कि उसे इस देश में रहने का अधिकार है. उन्होंने यह भी कहा कि बहुसंख्यकों की दादागीरी के रहते कोई भी देश तेजी से विकास नहीं कर सकता. देश-समाज में बढ़ती असहिष्णुता को लेकर पिछले कुछ दिनों में बड़ी संख्या मेंलेखकों-साहित्यकारों, कलाकारों और वैज्ञानिकों द्वारा जतायी गयी चिंताओं को भी इसी से जोड़ कर देखा जाना चाहिए.

अच्छी बात है कि `सबका साथ- सबका विकास` के वादे के साथ बनी केंद्र सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी को भी इस चिंता का बखूबी अहसास है. तभी तो देश की एकता में अतुल्य योगदान देनेवाले सेनानी सरदार पटेल की जयंती पर उन्होंने भी यही कहा कि विकास की नयी ऊंचाई हासिल करने के लिए एकता, शांति और सद्भाव पहली शर्त है. साथ ही दो टूक संदेश भी दिया कि देश की एकता और मूल्यों के साथ खिलवाड़ करने का अधिकार किसी को भी नहीं है. हालांकि प्रधानमंत्री का यह संदेश सत्ता से जुड़े नेताओं और संगठनों के चिंतन, बयान और व्यवहार में जब तक शामिल नहीं होगा, तब तक इसकी कोई अहमियत नहीं है. ऐसा नहीं हो सकता कि एक तरफ प्रधानमंत्री सबके विकास की बात करें, विकास को देश के हर मर्ज की दवा बताएं, दूसरी ओर उन्हीं की कैबिनेट के मंत्री या उनकी पार्टी के मुख्यमंत्री यह बयान दें कि इस देश या प्रदेश में किसे रहने का हक है और किसे नहीं. राष्ट्रीय एकता, शांति एवं सद्भाव की राह में खतरा पैदा करनेवाले तत्वों से निपटने की जिम्मेवारी राष्ट्रपति, रिजर्व बैंक के गवर्नर या किसी उद्योगपति की नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्रियों की ही है.
हमें नहीं भूलना चाहिए कि धार्मिक सहिष्णुता की पैरोकारी और इंसानियत की तरफदारी हर धर्म और हर लोकतांत्रिक देश के संविधान में की गयी है. कोई भी धर्म दूसरे धर्मों या समुदायों के प्रति कट्टरता की इजाजत नहीं देता. धर्म तो अपने भीतर भी ऐसे लोगों को स्वीकार करता है, जिनकी जीवनशैली या आचरण उस धर्म की प्रचलित अवधारणाओं एवं बुनियादी आग्रहों से भिन्न हो. इसे खान-पान, शादी-विवाह और पूजा-पाठ सहित व्यक्ति के तमाम कार्यों एवं कर्मकांडों में देखा जा सकता है. जब कोई धर्म अपने धर्मावलंबियों को समान आचरण के लिए विवश नहीं करता है, तो अपने आग्रहों को दूसरे धर्मावलंबियों पर थोपने का सवाल ही कहां पैदा होता है? ठीक इसी तरह, लोकतांत्रिक देश में हर किसी को अपनी-अपनी मान्यताओं व परंपराओं के अनुरूप जीने की आजादी जरूर है, लेकिन इस संविधान प्रदत्त आजादी की सरहद वहीं तक है, जहां से दूसरों के हित शुरू होते हैं. भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक राष्ट्र की तो पहचान ही विविधताओं में एकता की रही है. जिस दिन यह पहचान खतरे में पड़ जायेगी, देश की एकता एवं अखंडता पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है.

आज के दौर में निजी पूंजी निवेश के बिना देश के विकास की कल्पना बेमानी हो गयी है. लेकिन, कोई भी देशी-विदेशी निवेशक वहां अपनी पूंजी फंसाना नहीं चाहेगा, जहां की शांति पर खतरा मंडरा रहा हो. प्रधानमंत्री का `एक भारत श्रेष्ठ भारत` का सपना तभी पूरा हो सकता है, जब सहिष्णुता देश के आचार-विचार और व्यवहार में परिलक्षित होगी. उम्मीद करनी चाहिए कि विभिन्न धर्मों एवं समुदायों के बीच मनभेद पैदा करनेवाले प्रहसनों से प्रधानमंत्री देश को जल्द मुक्ति दिलायेंगे.

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