कैसे बचेगी सरदार पटेल की विरासत!

।। आदित्य मुखर्जी ।।(प्रोफेसर, जेएनयू)जब लोग भारत के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल में दक्षिण पंथ की गंध सूंघते हैं, जब दक्षिण पंथ की राजनीति करनेवाले लोग पटेल को अपना आइकॉन बनाने की कोशिश करते हैं, तब आधुनिक भारत के किसी भी गंभीर अध्येता के लिए आश्चर्यचकित हो जाना बेहद स्वाभाविक है. इन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 31, 2013 3:35 AM

।। आदित्य मुखर्जी ।।
(प्रोफेसर, जेएनयू)
जब लोग भारत के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल में दक्षिण पंथ की गंध सूंघते हैं, जब दक्षिण पंथ की राजनीति करनेवाले लोग पटेल को अपना आइकॉन बनाने की कोशिश करते हैं, तब आधुनिक भारत के किसी भी गंभीर अध्येता के लिए आश्चर्यचकित हो जाना बेहद स्वाभाविक है. इन दिनों भारत में ऐसी ही कोशिश हो रही है. हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति करनेवाले अगर पटेल के प्रतीक पर सवार होना चाहते हैं, तो यह उनका साहस की कहा जा सकता है. यह इतिहास को झुठलाने, उसे अपने हिसाब से विकृत करने की कोशिश है.

यह एक तथ्य है कि जवाहर लाल नेहरू सांप्रदायिकता के कट्टर शत्रु थे. 1951 में उन्होंने लिखा था, ‘अगर सांप्रदायिकता को खुल कर खेलने दिया जाये, तो यह देश को तोड़ डालेगी. सांप्रदायिकता को फासीवाद का भारतीय अवतार के तौर पर चित्रित करते हुए उन्होंने कहा था, फासीवाद की यह लहर जो अब भारत को अपने शिकंजे में ले रही है, मुसलिम लीग द्वारा अपने समर्थकों के बीच वर्षो से गैर-मुसलमान के खिलाफ नफरत भड़काने का सीध नतीजा है. लीग ने फासीवाद की विचारधारा को जर्मनी के नाजियों से प्राप्त किया है.. अब हिंदुओं के बीच भी फासीवादी संगठनों की विचारधारा और तौर-तरीके लोकप्रियता हासिल कर रहे हैं और एक हिंदू राज्य की स्थापना की मांग इसकी साफ अभिव्यक्ति है.’ नेहरू के इस रुख से लोग लगभग परिचित हैं.

लेकिन, एक विडंबना है कि नेहरू की इस सोच से पूरी तरह इत्तेफाक रखनेवाले सरदार वल्लभ भाई पटेल को साजिशन दक्षिणपंथी करार दिये जाने की कोशिशें होती रही हैं. सच्चई यह है कि सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष में पटेल पूरी तरह नेहरू के साथ थे. पटेल ने 1948 में कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में यह घोषणा की कि कांग्रेस और सरकार इस बात के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है कि ‘भारत एक सच्च सेकुलर राज्य हो’. फरवरी, 1949 में उन्होंने ‘हिंदू राज’ की चर्चा को पागलपन भरा विचार बताया. 1950 में उन्होंने एक भाषण में कहा था, ‘हमारा राज्य एक सेकुलर राज्य है..यहां हर मुसलमान को यह महसूस करना चाहिए कि वह भारत का नागरिक है और भारतीय होने के नाते उसका समान अधिकार है. यदि हम उसे ऐसा महसूस नहीं करा सकते, तो हम अपनी विरासत और अपने देश के लायक नहीं हैं.’क्या यह बताने की जरूरत है कि पटेल की विरासत क्या है?

पटेल, गांधी और नेहरू के साथ आजादी के संघर्ष के सबसे कद्दावर नेता थे. उन्होंने साम्राज्यवाद का पूरी ताकत के साथ विरोध किया. लेकिन, एक बात लोग अकसर भूल जाते हैं. पटेल सबसे प्रमुख रूप से किसान नेता थे. बारदोली से लेकर दूसरे किसान आंदोलनों में उनकी भूमिका उल्लेखनीय थी. जो उन्हें बुजरुआ राजनीति से जोड़ने की कोशिश करते हैं, वे इस तथ्य को जानबूझ कर अनदेखा करते हैं.

यह प्रमाणित करने की जरूरत नहीं कि पटेल दृढ़ राष्ट्रवादी थे. उनके व्यक्तित्व का कोइ भी सिरा ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की अवधारणा से जोड़ा जाना इतिहास के साथ खिलवाड़ करना है. राष्ट्रवाद का कोई रूप ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ नहीं हो सकता है. जिस पटेल ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) पर प्रतिबंध लगाया था, आज आरएसएस का एक पुराना स्वयंसेवक, उसी पटेल को अपना आइकॉन बनाने के लिए लालायित है. वे शायद इस सच को भी झुठलाना चाहते हैं कि गांधी की हत्या के बाद पटेल ने 25,000 स्वयंसेवकों को जेल में डाल दिया था. उन्होंने इस जघन्य कुकृत्य की पूरी जांच करायी और नेहरू को लिखा, ‘मुङो इस बात में कोई संदेह नहीं है कि यह काम हिंदू महासभा की एक शाखा ने, वीडी सावरकर के नेतृत्व में किया है.’ पटेल की विरासत पर भाजपा का दावा हास्यास्पद है. वैसे यह उनके लिए नया नहीं है. वे गांधी की विरासत पर भी अपना दावा जताते हैं. इसे अवसरवाद के अलावा और कोई दूसरा नाम नहीं दिया जा सकता है. उन्हें शायद स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका भी याद दिलाने की जरूरत है. 1942 में जब भारत छोड़ आंदोलन शुरू हुआ, उस वक्त आरएसएस समेत देश के जितने भी सांप्रदायिक संगठन थे, चाहे वह मुसलिम लीग हो या खिस लीग, ने उसमें भागीदारी नहीं की थी. आरएसएस ने अपने कार्यकर्ताओं से आंदोलन में शामिल न होने के लिए कहा था. उन्हें दिशा-निर्देश दिय गया था कि वे अपनी सारी शक्ति बचा कर रखें, क्योंकि असली लड़ाई तो आगे होनेवाली है.

गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर लगे प्रतिबंध को हटाने के लिए पटेल ने आरएसएस के सामने कुछ शर्ते रखी थीं. ये शर्ते थीं, ‘आरएसएस एक लिखित और प्रकाशित संविधान स्वीकार करेगा. अपने को सांस्कृतिक गतिविधियों तक ही सीमित रखेगा और राजनीति में कोई दखलंदाजी नहीं देगा. हिंसा और गोपनीयता का त्याग करेगा. भारतीय झंडा और संविधान के प्रति आस्था प्रकट करेगा तथा खुद को जनवादी आधारों पर संगठित करेगा. जाहिर है, आज आरएसएस सांस्कृतिक संगठन से ज्यादा एक राजनीतिक संगठन बन गया है. जो संगठन भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष का चुनाव कर रहा है, जो प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी तय कर रहा है, वह अगर खुद के सांस्कृतिक संगठन होने का दावा करे, तो हकीकत क्या है, यह समझने के लिए किसी के पास आइंस्टीन की तरह खास दिमाग होना जरूरी नहीं है.पटेल खून के आखिरी कतरे तक सेकुलर थे. पटेल होते तो मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक हिंसा को कतई बरदाश्त नहीं करते. अनेक गलतियों ओर कमजोरियों के बावजूद विभाजन के बाद के दंगों से निबटने में भारत सरकार का रिकॉर्ड काफी बेहतर कहा जा सकता है. 1950 में एक धर्मनिरपेक्ष संविधान की नींव रखी गयी, तो इसमें नेहरू के साथसाथ पटेल की भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं थी.

पटेल ने एक मजबूत केंद्र वाले संप्रभु, स्वतंत्र, लोकतांत्रिक देश की आधारशिला रखी. आज तक अगर केंद्र से दूर छिटकनेवाली प्रवृत्तियों पर लगाम लगाया जा सका है, तो इसमें पटेल की भूमिका ऐतिहासिक है. आज पटेल की विरासत के सामने कई चुनौतियां हैं. केंद्र कमजोर हो रहा है. विभिन्न जगहों से पृथकतावादी मांगें मजबूत हो रही हैं. सांप्रदायिकता मुजफ्फरनगर दंगों के रूप में अपना नंगा नाच कर रही है. सबसे बड़ी चुनौती पटेल की विरासत पर अधिकार जताने की उन लोगों कोशिश को विफल करने की है, जो पटेल के आदर्शो के सबसे बड़े दुश्मन हैं.( अवनीश मिश्र से बातचीत पर आधारित)

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