हिंदी विभाग में लोकप्रियता का पाठ

प्रभात रंजन कथाकार हिंदी का अकादमिक जगत सिंह की एक ऐसी गुफा की तरह है, जिसमें अंदर जाने के निशान तो मिलते हैं, लेकिन बाहर आने के नहीं. यह मान लिया गया है कि हिंदी की दुनिया की हलचलों का उसके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. वह अब भी व्याख्या, भावार्थ मॉडल में चलता रहता […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 5, 2015 1:18 AM
प्रभात रंजन
कथाकार
हिंदी का अकादमिक जगत सिंह की एक ऐसी गुफा की तरह है, जिसमें अंदर जाने के निशान तो मिलते हैं, लेकिन बाहर आने के नहीं. यह मान लिया गया है कि हिंदी की दुनिया की हलचलों का उसके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. वह अब भी व्याख्या, भावार्थ मॉडल में चलता रहता है. दुख की बात है कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों से हम इतने उदासीन हो चुके हैं कि वहां कुछ सकारात्मक भी होता है, तो हमारा ध्यान उधर नहीं जा पाता.
इस साल हिंदी अकादमिक जगत की एक बड़ी घटना रही दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा लोकप्रिय साहित्य के पेपर की शुरुआत. इस पत्र में देवकीनंदन खत्री के उपन्यास ‘चंद्रकांता’ से लेकर इब्ने सफी, गुलशन नंदा, सुरेंद्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा आदि लेखकों के उपन्यासों को पढ़ाया जाना है.
इसके अलावा कवि सम्मेलनी कविता और फिल्मी गीतों और गीतकारों को भी इस पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया गया है. बौद्धिक जगत चाहे जितना नाक-भौं सिकोड़ ले, लेकिन यह घटना युगांतकारी है. दशकों तक जिन लेखकों और उनकी रचनाओं को घासलेटी साहित्य, लुगदी साहित्य आदि कह कर उनका उपहास उड़ाया जाता रहा, आज उनके प्रभाव, उनके समाज के अध्ययन की शुरुआत हुई है. सबसे बड़ी बात है कि दिल्ली विवि का सेमेस्टर अब समाप्त होने को है और विद्यार्थियों एवं अध्यापकों में इस पाठ्यक्रम को लेकर उत्साह का भाव है.
इस बात को सर्वमान्य तथ्य के रूप में देखा जाता रहा है कि लोकप्रिय साहित्य ने पाठकों को बड़े पैमाने पर हिंदी से जोड़ने का काम किया. जिस दौर में लोकप्रिय साहित्य की व्याप्ति बड़े पैमाने पर थी, उस जमाने में साहित्य का पाठक वर्ग भी व्यापक था. 90 के दशक के बाद लोकप्रिय साहित्य का स्पेस टीवी लेने लगी, तो साहित्य के पाठकों का भी टोटा पड़ने लगा.
यह साझी विरासत साझी शहादत वाला मामला लगता है. बावजूद इसके हिंदी के इतिहासों से लोकप्रिय साहित्य को बेदखल ही रखा गया. वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास ‘वर्दी वाला गुंडा’ भारत के सबसे अधिक बिकनेवाले उपन्यासों में एक है और उसका जिक्र तक नहीं किया जाता है.
मुझे याद आता है कि आमिर खान ने अपनी फिल्म ‘तलाश’ के प्रचार अभियान की शुरुआत मेरठ में वेद प्रकाश शर्मा के घर से की थी. यह कहते हुए कि उनकीयह फिल्म जासूसी पर है और वे जासूसी कथा के सबसे बड़े लेखक के घर से अभियान की शुरुआत कर रहे हैं.
कहने का मतलब यह है कि जिस साहित्य ने समाज को, सिनेमा को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया, हिंदी विभागों ने उन्हें चर्चा के लायक ही नहीं समझा. लेकिन अब लगता है वह माइंडसेट बदले. बहरहाल, मैंने जब जासूसी लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक से यह जानकारी साझा की, तो उनकी प्रतिक्रिया दिल को छू लेनेवाली थी- अब बहुत देर हो गयी है. यह काम पहले हुआ होता तो बहुत उत्साह बढ़ता. लेकिन अब मैं 77 साल का हो चुका हूं. खैर, देर आयद दुरुस्त आयद!

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