संघर्ष को सलाम
राजस्थान के पूर्व विधायक 70 वर्षीय गुरुशरण छाबड़ा की मौत अपने पीछे कई सवाल छोड़ गयी है. यह एक ऐसे अनशनकारी की मौत है, जो चाहता था कि पूरे देश में न सही, तो कम-से-कम उसके प्रांत में ही एक ऐसी कारगर संस्था बने जो नेताओं, नौकरशाहों और अपराधियों के अदृश्य गठजोड़ से चलनेवाले भ्रष्टाचार […]
राजस्थान के पूर्व विधायक 70 वर्षीय गुरुशरण छाबड़ा की मौत अपने पीछे कई सवाल छोड़ गयी है. यह एक ऐसे अनशनकारी की मौत है, जो चाहता था कि पूरे देश में न सही, तो कम-से-कम उसके प्रांत में ही एक ऐसी कारगर संस्था बने जो नेताओं, नौकरशाहों और अपराधियों के अदृश्य गठजोड़ से चलनेवाले भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सके.
छाबड़ा जी बीते दो अक्तूबर से भूख-हड़ताल पर बैठे थे. उनकी मांग थी कि राजस्थान में लोकायुक्त नाम की भ्रष्टाचार-निरोधी संस्था को मजबूत बनाया जाये, उसकी जांच के दायरे में मुख्यमंत्री को भी लाया जाये, लेकिन राज्य सरकार ने अवस्था बिगड़ने तक न तो उनके सेहत की सुध ली और न ही उनकी मांग की.
अनशन को कुछ राजनीतिशास्त्री हठधर्मी करार देते हैं, पर छाबड़ा जी का अनशन हठधर्मी पर आधारित नहीं था. इसी मांग को लेकर जब उन्होंने पिछले साल भूख-हड़ताल की थी, तब प्रदेश की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने वादा किया था कि उनकी मांग के अनुरूप प्रदेश में मजबूत लोकायुक्त बनाया जायेगा. छाबड़ा की मृत्यु के साथ इस सरकारी वादे पर से नागरिकों का भरोसा उठा है. यह अकेले छाबड़ा जी की मांग नहीं थी.
राजस्थान के मौजूदा लोकायुक्त रिटायर्ड जज एसएस कोठारी तक कह चुके हैं कि प्रदेश की लोकायुक्त संस्था शक्तियों के मामले में अन्य राज्यों की लोकायुक्त संस्था की तुलना में ‘सबसे कमजोर’ है. एक तो मुख्यमंत्री इसकी जांच के दायरे से बाहर है, और मिलनेवाली शिकायतों की जांच यह संस्था स्वयं नहीं कर सकती, न ही शिकायतों के सत्यापित होने पर कोई कार्रवाई कर सकती है.
राजस्थान का लोकायुक्त बस सरकार को सुझाव दे सकता है कि दोषी के विरुद्ध वैधानिक कार्रवाई की जाये. देश में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त के रूप में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगानेवाली कारगर संस्था के लिए नागरिकों का आंदोलन करीब पांच दशक पुराना है. हाल के वर्षों में अन्ना हजारे के आंदोलन के जरिये मजबूत लोकपाल और लोकायुक्त की मांग बलवती हुई, तो भ्रष्टाचार के खात्मे के वादे के साथ दिसंबर, 2013 में राजस्थान और मई, 2014 में केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में नयी सरकार का आना संभव हुआ.
लेकिन, दुखद है कि नवंबर, 2015 तक यह मांग बनी हुई है और इसके लिए एक अनशनकारी को जान देनी पड़ी है. उम्मीद की जानी चाहिए सरकारें लोकपाल और लोकायुक्त संबंधी नये कानून पर अमल का प्रयास करेगी और ऐसा करते हुए पांच दशकों से इसके लिए चल रहे जनसंघर्ष के जज्बे का ध्यान रखेगी.