ऐतिहासिक फैसला
इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच ने दुष्कर्म और उससे जन्म लेने वाले नवजात के संदर्भ में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. संभवत: पहली बार अदालत ने ऐसी घटनाओं में पीड़िता के पुनर्वास के लिए सरकार, पुलिस अधिकारियों, बाल कल्याण समिति और प्रिंसिपल के प्रति जवाबदेही तय की है. यही नहीं, अदालत ने समाज के सामने […]
इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच ने दुष्कर्म और उससे जन्म लेने वाले नवजात के संदर्भ में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. संभवत: पहली बार अदालत ने ऐसी घटनाओं में पीड़िता के पुनर्वास के लिए सरकार, पुलिस अधिकारियों, बाल कल्याण समिति और प्रिंसिपल के प्रति जवाबदेही तय की है. यही नहीं, अदालत ने समाज के सामने भी कुछ चुभते प्रश्न रखे हैं, जिस पर सोचा जाना चाहिए. उसने कहा है कि दुष्कर्म से पैदा बच्चे को उसके पिता का नाम नहीं मिल पाता और शर्म के मारे उसकी मां नवजात को छोड़ देती है.
क्या यह किसी भी व्यक्ति के जीने के अधिकार का हनन नहीं है? दरअसल, यह सवाल उस सामाजिक चिंतन की ओर ले जाता है, जहां दुष्कर्म की शिकार हुई स्त्री को अपराधी ठहराया जाता है. उसके चरित्र में खोट निकाले जाते हैं. ऐसी घटनाओं से पैदा होने वाले बच्चे को समाज हिकारत की नजर से देखता है, जबकि उस बच्चे के पैदा होने या उसे जन्म देने वाली स्त्री का इसमें कोई दोष नहीं होता है. 2013 में निर्भया कांड के बाद कानून में संशोधन हुआ, पर दुष्कर्म के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं.
इस परिप्रेक्ष्य में लखनऊ बेंच का आया फैसला देश भर के लिए नजीर बन सकता है. अदालत ने दुष्कर्म की शिकार हुई 13 वर्षीय बच्ची के नाम से दस लाख रुपये फिक्स डिपॉजिट करने के अलावा उसके बालिग होने पर उसकी नौकरी सुनिश्चित करने का आदेश भी सरकार को दिया है. स्थानीय एसपी पीड़ित बच्ची को संरक्षण देंगे. अदालत ने दुष्कर्म से जन्मे बच्चे को उसके जैविक पिता (दुष्कर्मी) की संपत्ति में हिस्सेदारी के मामले को पर्सनल लॉ के मुताबिक तय करने की बात कही है.
अदालत ने संपत्ति में हिस्सेदारी के संदर्भ में इस प्रश्न को अप्रासंगिक माना है कि नवजात दुष्कर्म या सहमति से संबंध बनाये जाने का नतीजा है. अदालत ने नवजात के पुनर्वास का निर्देश तो दिया ही है, साथ में, उसने कहा है कि पीड़िता की पढ़ाई आवासीय विद्यालय में होगी. उसकी पृष्ठभूमि या उसके अतीत की जानकारी किसी को नहीं दी जायेगी. इसके लिए उसने स्कूल के प्रिंसिपल को जवाबदेह बनाया है.
जाहिर है अदालत ने यह फैसला ऐसी घटनाओं की तमाम गुत्थियों को नजर में रखते हुए दिया है. ऐसे मामलों में व्यवस्था और सामाजिक नजरिये की सच्चाई भी इस फैसले में प्रतिध्वनित होती हुई दिख रही है. पर बड़ा सवाल यह है कि क्या प्रशासनिक इकाइयां और समाज उस औरत को वह सम्मान व प्रतिष्ठा देने का मानस बनायेंगे, जिसकी वह हकदार है?