आइकॉन गढ़ने की यह राजनीति
।। अरविंद मोहन।।(वरिष्ठ पत्रकार) राजनीति बदल रही है और तेजी से बदल रही है. इसका एक प्रमाण राजनीति के नायकों का बदलना भी है. गांधी बाबा हों, जेपी हों या लोहिया उनका यश कम नहीं हुआ है, बल्कि बढ़ता ही गया है. लेकिन इस बीच नये नायक तेजी से उभर रहे हैं. इसका एक प्रमाण […]
।। अरविंद मोहन।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
राजनीति बदल रही है और तेजी से बदल रही है. इसका एक प्रमाण राजनीति के नायकों का बदलना भी है. गांधी बाबा हों, जेपी हों या लोहिया उनका यश कम नहीं हुआ है, बल्कि बढ़ता ही गया है. लेकिन इस बीच नये नायक तेजी से उभर रहे हैं. इसका एक प्रमाण 31 अक्तूबर को पटेल जयंती से जुड़े आयोजनों का जोर बढ़ते जाने का है. मनने को तो हर साल गांधी/ नेहरू परिवार के यशस्वी सदस्यों की जयंती-बरसी ज्यादा धूमधाम से मनती आयी है, पर वह कर्मकांड ज्यादा बन गयी है. पटेल या बाबा साहब के मामले में उत्साह जेनुइन होता है और यह राजनीति के बदलने का भी प्रमाण है.
हर साल जहां नये इलाकों, नये सामाजिक समूहों में पटेल को लेकर नया उत्साह दिखता था, वहीं भाजपा, संघ परिवार और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने इस बार सरदार वल्लभभाई पटेल की जैसी घेराबंदी की है, वह जेनुइन उत्साह या कुछ नया करने-पाने की जगह उनके राजनीतिक इस्तेमाल का मामला ज्यादा लगता है. संघ, भाजपा या नरेंद्र मोदी का सरदार से सिर्फ यही नाता है कि वे भी उसी गुजरात से आते हैं, जहां दो दशकों से भाजपा का राज है और संघ परिवार अपने आपको राष्ट्रवादी बताने में उन्हें उपयोगी पाता है, क्योंकि वे नेहरू-गांधी परिवार के शासनकाल में कुछ उपेक्षित रहे हैं.
इस पूरे अभियान में क्या-क्या हुआ या हो रहा है, यह गिनाने की जरूरत नहीं. अपनी कल्पना से ही दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बनाने के लिए रामशिला की तरह देश भर से लोहा जमा कराने से लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उपस्थिति में यह दावा करना कि सरदार अगर पहले प्रधानमंत्री हुए होते, तो देश कुछ और हो गया होता (क्योंकि नेहरू से तो देश चला ही नहीं!) बस इसकी एक बानगी है. अब उस गुजराती अखबार ने अपनी एक्सक्लूसिव खबर को गलत बता दिया है, जिसमें सारी व्यस्तता के बावजूद नरेंद्र मोदी से सरदार वाले मसले पर बात करने का दावा किया गया था, जिसमें मोदी ने यह कहा था कि सरदार के अंतिम संस्कार में नेहरू गये ही नहीं. जब टाइम्स ऑफ इंडिया ने सरदार के अंतिम संस्कार वाले दिन के अखबार की प्रतिलिपि छाप कर साबित किया कि तत्कालीन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, दोनों ही अंतिम संस्कार में शामिल हुए, तब यह अखबार अपनी खबर से पलट गया.
फिर भी संघ परिवार और मोदी ने सरदार पर दावा करना बंद नहीं किया. इसके कुछ हद तक चर्चा में रहने और सफल होने के भी कारण हैं. एक तो कांग्रेस ने आजादी के बाद से लगातार सरदार, राजाजी, आजाद, राजेंद्र बाबू, बाबा साहब जैसों की उपेक्षा की है. दूसरे, इतिहास लेखन पर हावी वामपंथी बिरादरी नेहरू को वामपंथी और पटेल, राजाजी और राजेंद्र प्रसाद को दक्षिणपंथी बताने में इस कदर जुटी रही है कि उसे यह होश नहीं रहा कि इस बात का कैसा दुरुपयोग हो सकता है.
यह अलग बात है कि अपने लंबी और दमदार राजनीति से सरदार ने ऐसी विरासत छोड़ी है, जिसे न तो कोई हथिया सकता है न नकार सकता है. राष्ट्रीय आंदोलन, किसान आंदोलन और गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों में उनका क्या योगदान है, गांधी से उनके निजी रिश्ते क्या थे, यह सब गिनवाना मतलब नहीं रखता. संविधान समेत आजाद भारत के शासन और बुनियादी नीतियों को तय करने में नेहरू, पटेल, बाबा साहब, आजाद और राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों के बीच लगभग एकमत था. तभी सेकुलर संविधान बना. जब अप्रैल, 1950 में भारत-पाकिस्तान शासन द्वारा अपने-अपने अल्पसंख्यकों से भेदभाव न करनेवाला नेहरू-लियाकत समझौता हुआ, तब भी सारे नेता एकमत थे. तब कैबिनेट में मौजूद श्यामा प्रसाद मुखर्जी को आपत्ति थी और वे विरोधस्वरूप सरकार से बाहर चले गये. सरदार ने इस बारे में पूरी सहमति दिखायी.
उनकी राजनीति के विरोधी और विभाजन के समय यूपी से पाकिस्तान चले गये खलिकुज्जमा, जो वहां की सरकार में बहुत ऊंचा पद भी पा गये थे, ने लिखा है कि विभाजन के दौरान और उसके बाद सरदार ने असंख्य मुसलमानों की जान बचायी. हम सब जानते हैं कि उनकी कार्यशैली और विचारधारा के चलते ही गुजरात से मुसलमानों का बहुत कम पलायन हुआ. अहमदाबाद शहर का हाल यह था कि लीग का अध्यक्ष 14 अगस्त रात तक लोगों से पाकिस्तान चलने की अपील करता रहा, पर रात बारह बजे उसने खुद अपने घर पर लगा लीग का झंडा उतारा और तिरंगा फहरा लिया. वह खुद भी नहीं गया. पटेल ने ऑल इंडिया रेडियो के कार्यक्रम उर्दू में चलाने और हिंदुस्तानी के प्रयोग की खुली वकालत की. उनमें और नेहरू में कश्मीर पर भी कभी मतभेद नहीं दिखा. उल्लेखनीय है कि जब नेहरू अपने समाजवाद और पंचशील के चक्कर में चीन के मोह में फंसते जा रहे थे, तब ही सरदार ने साम्यवादी चीन के विस्तारवादी इरादों के प्रति नेहरू को सावधान किया था.
पर सबसे मजेदार है संघ और सरदार के रिश्तों को ही याद करना. इस सांप्रदायिक संगठन के मूल्यांकन में भी उनका नेहरू से कभी कोई मतभेद नहीं दिखा. यह जग जाहिर है कि संघ ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया. फिर विभाजन के समय के दंगों और गांधी विरोध में अनेक अतिवादी हिंदू संगठनों में वह भी एक था. जब गांधीजी की हत्या हो गयी, तो संघ पर प्रतिबंध लगाने और उसके कार्यकर्ताओं को जेल में डालने का काम उसी पटेल ने किया, जिन्हें संघ ने वामपंथियों से लड़ने में मदद की पेशकश की थी. सरदार ने इस प्रस्ताव को कभी नहीं माना और फरवरी, 1949 में उन्होंने कहा, ‘हिंदू राज का विचार पागलपन भरा का है. यह भारत की आत्मा को मार देगा.’ फिर जब संघ ने खुद को सांस्कृतिक संगठन बताया, आगे राजनैतिक गतिविधियों में हिस्सा न लेने का वादा किया और नाथुराम के सीधे संघ से जुड़ाव की बात साबित नहीं हुई, तब जाकर गृह मंत्री ने प्रतिबंध उठाया.
इसलिए अब कोई संघ और सरदार में मेल बैठाना चाहे या संघ परिवार सरदार का राजनीतिक लाभ लेना चाहे, यह, संभव ही नहीं है. पटेल की विरासत को आज की राजनीति में भुनाना भी मुश्किल है. अब गांधी का नाम लेकर आप दारू-मुर्गे का धंधा तो नहीं ही चला सकते हैं. इस हंगामे में शामिल नेता मुख्यत: अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए यह काम कर रहे हैं. उनमें से कुछ के मन में सरदार पटेल के लिए सच्ची न श्रद्धा हो, यह दावा करना गलत होगा. कुछ के मन में ऐसे महापुरुषों के अपनी बिरादरी और कुनबे से जुड़ा होने का गौरव भाव भी होगा, पर ज्यादातर को इन दोनों से ज्यादा मतलब नहीं है. यही कारण है कि आज जब उनकी उपेक्षा करते रहनेवाले मनमोहन और कांग्रेस भी संघ के दावे को काटते हैं, तो बुरा नहीं लगता.