कृष्ण प्रताप सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों संपन्न हुए जिला व क्षेत्र पंचायत सदस्यों के चुनाव नतीजों की अखबारों में छपी सुर्खियां बहुत दिलचस्प हैं: मतदाताओं ने प्रधानमंत्री मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में भाजपा के कई प्रत्याशियों की भद पिटवाने में संकोच नहीं की, तो प्रदेश की अखिलेश सरकार के कई मंत्रियों की पत्नियों, पुत्रियों और पुत्रों वगैरह की जमानतें भी नहीं बख्शी. कहीं उन्होंने किसी बड़बोले ‘दिग्गज’ के बिगड़ैल सिपहसालार को पांचवें नंबर पर धकेल दिया, तो कहीं किसी निगम के लालबत्तीधारी अध्यक्ष को ‘खुद वोट छापने’ के बाद भी अपनी हार नहीं टालने दी.
कहीं कोई माफिया बूथ कैप्चरिंग के बावजूद विजय का वरण नहीं कर सका, तो कहीं किसी दबंग के भाई-भाभी खेत रहे. अनेक सीटों पर दलितों-पिछड़ों के वे प्रत्याशी भी खेत रहे, जिन्हें सीटों के चक्रीयक्रम वाले आरक्षण की चपेट में आ गये सामंतों ने इस उम्मीद में खड़ा किया था कि वे जीते तो अपना रिमोट किसी और के हाथ में नहीं देंगे! बेदर्द मतदाताओं को कोई प्रत्याशी समझ में नहीं आया, तो उन्होंने हराने में न उसके झंडे का रंग देखा, न ही उसका प्रभुत्व!
इन सुर्खियों को पढ़ कर आप यह सोचते हैं कि इन चुनावों में सच्चे अर्थों में लोकतंत्र या जनता की जीत हो गयी है या देर से ही सही जिला व क्षेत्र पंचायतों में ग्रामीणों के वास्तविक प्रतिनिधियों के हाथ मजबूत हुए हैं, जो मुंशी प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी ‘पंच परमेश्वर’ में चुने गये पंचों की तर्ज पर जड़ताओं को तोड़ने और परिवर्तनकामना को तुष्ट करने का अनुपम आदर्श उपस्थित करेंगे, तो आप गलती कर रहे हैं, क्योंकि जो प्रत्याशी चुनाव जीते हैं, उनका परिचय हारे हुओं से अलग नहीं है. कई मायनों में वे हारनेवालों के ‘बड़े भाई’ हैं और उनका आपस में गजब का भाईचारा है!
दरअसल, इस बार ये चुनाव शुरू से ही ग्रामीण जनजीवन के एक बेहद छोटे सुखासीन तबके के ‘खुल कर अरमान निकालने’ के अवसर में बदल गये थे.
चूंकि जिला व क्षेत्र पंचायतों के स्याह-सफेद के व्यापक अधिकार रखनेवाले अध्यक्ष इन्हीं सदस्यों के बीच से और इन्हीं के वोट से चुने जाते हैं और कोई सदस्य खुद अध्यक्ष बनने की लालसा न भी पाले, तो उसके वोट की कल्पनातीत ऊंची बोली उसकी बल्ले-बल्ले करा देती है, इसलिए पार्टियों की राजनीतिक शख्सियतंे इस बल्ले-बल्ले को अपनों के हाथ से न जाने देने की तिकड़मों में किसी भी धर्म या सदाचार को बख्शने को तैयार नहीं थीं.
मतदाताओं के लिए इन चुनावों का सिर्फ इतना मतलब था कि वे अब तक अपनी छाती पर मूंग दलते आ रहे महानुभावों को ही फिर से सिर-आंखों पर बिठायें या नये को सताने का मौका दें.
दूसरी ओर इन पंचायतों की एक झटके में लखपति बना देनेवाली सदस्यता के लिए मार-काट मची, तो गरीब-योग्य प्रत्याशी परचा भरने तक का साहस नहीं कर पाये. जिन धनी मानी प्रत्याशियों ने उनकी जगह ली, उन्होंने किसी भी कीमत पर जीतने के लिए जम कर वोट खरीदे और पीने-पिलाने के दौर चलाये. कई क्षेत्रों में मतदान के अगले दिन वोटरों के लिए यह सदमे से कम नहीं था कि उन्होंने पांच सौ के जिस नये करारे नोट के बदले अपना वोट बेचा, वह नकली था! इससे कल्पना की जा सकती है कि इन चुनावों के दौरान कितना अघटनीय घटा.
कभी पंचायतों को लोकतंत्र की प्राथमिक इकाइयां माना जाता और संसद को देश की सबसे बड़ी पंचायत कहा जाता था. पंचायतों के पाक-साफ चुनावों की नजीर देकर सिद्ध किया जाता था कि भ्रष्टाचरण समेत राजनीति अथवा सार्वजनिक जीवन की सारी बुराइयां ऊपर से नीचे आती हैं.
वे नीचे आनी शुरू हुईं, तो प्रसिद्ध जनकवि अदम गोंडवी ने लिखा था- जितने हरामखोर थे पुरवो जवार में, परधान बनके आ गये अगली कतार में! लेकिन इन चुनावों में पंचायतों या कि गांवों में ‘ऊपर से’ आयी बुराइयां जिस तरह जड़ें जमाये दिखीं, उनसे लगा कि लोकतंत्र की इस लूट में अदम के समय का अगली व पिछली कतारों का भेद अब खत्म हो गया है.
गरीबों के लिए इस स्थिति का एक ही संदेश है. यह कि अब पंचायतें भी उनके हाथ से गयीं! क्योंकि उन्हें पहले से ही इरादतन सारी चुनाव प्रक्रिया से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है.
प्रसंगवश, ऐसा सिर्फ इसी प्रदेश में नहीं है. जिस देश में अभी सांसदों की शैक्षिक योग्यता नहीं तय है, वहीं पंजाब समेत उसके कई प्रदेशों में पंचायत प्रतिनिधियों की शैक्षिक योग्यता निर्धारित करने के खेल हो रहे हैं, ताकि गरीब ही नहीं, अनपढ़ भी चुनाव न लड़ सकें!