आतिशबाजी का दिवाली से गहरा नाता है. लक्ष्मी पूजा के बाद शगुन के तौर पर फोड़े जानेवाले पटाखे अब हमारे लिए नुकसानदायक होते जा रहे हैं. हवा में जहर घोलते ये पटाखे कई प्रकार की शारीरिक व मानसिक व्याधियों को जन्म दे रहे हैं. पटाखों की धमक हमारे चेहरे पर जरूर मुस्कान लाती है, पर यह मुस्कान हमारी बरबादी का पूर्वाभ्यास है. इसका आभास हमें उस वक्त नहीं होता, जब हम पटाखों की रोशनी एवं उत्साह में खो जाते हैं.
जब पटाखे फूटते हैं, तो हमें इस बात की चिंता नहीं होती कि इसका कितना दुष्प्रभाव हमारे शरीर पर होता है. पटाखों में बारूद, चारकोल और सल्फर के केमिकल्स का इस्तेमाल होता है, जिससे पटाखे से चिंगारी, धुआं और आवाज निकलती है, इनके मिलने से प्रदूषण होता है, तो वायु में सल्फर डाइऑक्साइड व नाइट्रोजन डाइऑक्साइड आदि गैसों की मात्रा बढ़ जाती है.
ये हमारे शरीर के लिए नुकसानदेह होती हैं. पटाखों के धुएं से अस्थमा व अन्य फेफड़ों संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है. आम दिनों में शोर का मानक स्तर 50 तथा रात में 30 डेसिबल होता है, परंतु दीवाली के दिन यह बढ़ कर 75 से 95 डेसिबल तक पहुंच जाता है. यहां एक सवाल यह भी है कि पटाखों से होनेवाले प्रदूषण को लेकर सरकारी मानक क्या कहते हैं. सरकारी मानक केवल ध्वनि प्रदूषण की बात करते हैं. पटाखा बनाने के काम में आनेवाले रसायनों को लेकर सरकारी दिशा-निर्देश हैं. इनसे कितनी आवाज आ सकती है. उस पर तो नियम हैं. हालांकि, इस मसले का एक और पहलू भी है कि धुएं को लेकर मानक तय कर दिये जायें, तो पटाखों के ज्यादा इस्तेमाल की वजह से हालात वही रहेंगे. कोई बहुत पटाखे छोड़ता है, तो कुछ नहीं बदलेगा.
Àअमृत कुमार, डकरा, खलारी