इस चुनावी हार और जीत के मायने

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के दौरान यह एक बात बहुत सही कही कि बिहार को छोड़ कर देश के विकास की बात बेमानी है. इस चुनाव के साथ बिहार देश की राजनीति के केंद्र में अा गया था अौर इसके परिणाम ने बिहार को देश की भावी राजनीति का एजेंडा बनाने का काम सौंप […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 10, 2015 1:02 AM

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के दौरान यह एक बात बहुत सही कही कि बिहार को छोड़ कर देश के विकास की बात बेमानी है. इस चुनाव के साथ बिहार देश की राजनीति के केंद्र में अा गया था अौर इसके परिणाम ने बिहार को देश की भावी राजनीति का एजेंडा बनाने का काम सौंप दिया है.

बस जैसे जीत ही काफी थी! किसी ने किसी से अांकड़े नहीं पूछे; न तो यह पूछा कि नरेंद्र मोदी को कितनी सीटें अायीं और न ही यह कि नीतीश कुमार को कितनी. सबके लिए इतना ही जानना जरूरी था कि नीतीश कुमार जीत गये अौर नरेंद्र मोदी हार गये! चुनावी जंग का यही नक्शा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पसंद किया था अौर लंबे समय से बड़ी मेहनत के साथ उसमें अपनी पसंद के रंग भर रहे थे. अब यह बदरंग हुअा पड़ा है!

बिहार की जंग में ऐसी एकतरफा जीत संभव है, यह किसी ने माना नहीं था! लोकतंत्र की यह भी एक खूबसूरती है कि लोक ने क्या सोचा है अौर क्या तय किया है से लेकर लोक ने अंतत: किया क्या है, यहां तक यह अनजाना बना रहता है. होता वही है, जो लोक करता है; जो लोक चाहता है! बिहार में एक बार फिर यही साबित हुअा है. बिहार देश का गरीब अौर पिछड़ा प्रांत गिना जाता रहा है, लेकिन इसकी माटी में कुछ तो है कि यह हवा का रुख पहचानाता है, उसे समझता है अौर जरूरत पड़ने पर उसे बदलता भी है. इसलिए देश के राजनीतिक इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुअा कि बिहार को छोड़ कर या भूल कर कोई चल सका हो. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के दौरान यह एक बात बहुत सही कही कि बिहार को छोड़ कर देश के विकास की बात बेमानी है. इस चुनाव के साथ बिहार देश की राजनीति के केंद्र में अा गया था अौर इसके परिणाम ने बिहार को देश की भावी राजनीति का एजेंडा बनाने का काम सौंप दिया है.

ऐसी जीत कैसे संभव हुई? जितने मुंह, उतनी बातें; जितने नायक, उतने कारनामों की फेहरिश्त! लेकिन सच तो यह है कि इस प्रांत की (इस देश की!) तथाकथित अनपढ़-असंगठित-असंस्कारी अादि-अादि जनता में गजब की राजनीतिक समझ अौर संवेदना है. जरूरत है तो संवेदना के उस तार को छूने अौर उसे झंकृत करने की! इस बार उस तार को चार लोगों ने छुअा- नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद अौर राहुल गांधी ने! लेकिन, नीतीशजी-लालूजी की जोड़ी ने चुनावी अभियान को जैसी दिशा दी, गति दी, वैसी किसी जोड़ी का उदाहरण खोजना अासान नहीं होगा, जबकि हम सभी जानते हैं कि यह जोड़ी सहजता में नहीं बनी थी. मतलब यह कि इन दोनों नेताअों की राजनीतिक प्रौढ़ता को हमें दर्ज करना चाहिए. दोनों अपने स्वभाव व प्रकृति में पर्याप्त भिन्न है, लेकिन इस बार दोनों ने एक-दूसरे को पूरा करने की कोशिश की.

राहुल गांधी भी अपनी ही तरह के राजनेता हैं, जिनकी कमियों-कमजोरियों अौर कच्चेपन की बहुत चर्चा होती है, ताकत की चर्चा कम. राहुल की ताकत उनकी निरंतरता से साबित हुई. वे एक-सी ही बात, एक-से ही स्वर में अपनी सारी सभाअों में बोलते रहे अौर बिहार के लोगों में अधिकाधिक प्रवेश करने की उनकी कोशिश भी सतत जारी रही. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि राहुल गांधी ने इस चुनाव में फिर से कांग्रेस के लिए जमीन बना दी है. राहुल अौर बिहार के कांग्रेसी यदि इस जमीन को उर्वर बनाना चाहें, तो उन्हें समझदारी अौर ईमानदारी से वह जनसंपर्क जारी रखना होगा, जो राहुल गांधी ने बनाया है.

भाजपा के लिए यह बात कबूल करना शायद कठिन होगा. पार्टी की बात बिगड़ी नरेंद्र मोदी के कारण अौर चुनावी मुहिम रास्ते से भटक गयी अमित शाह के कारण! नरेंद्र मोदी ने जब बिहार के चुनाव की कमान संभाली, तब भूल गये कि वे भाजपा के नेता भर नहीं, देश के प्रधानमंत्री भी हैं. इसलिए वे देश में जहां कहीं भी कुछ भी बोलते-कहते-सुनते थे (या मौन रखते थे!) उन सबका असर बिहार के मतदाता पर होता था! इतने दिनों में प्रधानमंत्री के रूप में देश ने उन्हें जिस तरह पहचाना है, वह ज्यादा गहरा व शालीन नहीं है. उनकी वह छवि चुनावी हवाबाजी में मजबूत होती गयी. इसे भांपने की जरूरत थी, जिस पर अमित शाह ने परदा डाल दिया. अगर चुनाव की कमान बिहार के नेताअों के हाथ में होती अौर नरेंद्र मोदी के साथ उनका बराबरी का संवाद होता, तो यह बात उजागर हो जाती अौर सुधारी भी जा सकती थी. लेकिन भाजपा खेमे में मामला तो कुछ दूसरा ही था!

लालू प्रसाद की छवि अौर उनकी राजनीतिक समझ का कोई मेल नहीं है! गुजरात से अायी टीम इस फर्क को नहीं समझ सकी. लालूजी ने अपनी राजनीतिक समझ का हर मोड़ पर जैसी कुशलता से इस्तेमाल किया, वह सबको हैरान करनेवाला था. एक बार यह तय कर लेने के बाद कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ना है, लालूजी ने एक कदम भी ऐसा नहीं उठाया, जिसकी बाद में कोई सफाई देने पड़े! यह बिहार के लिए नये लालू से सामना जैसा था. चुनावी मैदान में जबान के तीर चलाने की अपनी जिस महारत से नरेंद्र मोदी ने सबको कायल कर रखा था, लालू ने तुर्की-ब-तुर्की उसी अंदाज में उनका जवाब दे-दे कर नरेंद्र मोदी अौर भाजपा को पसीने-पसीने कर दिया! मोहन भागवत, अारएसएस, बीफ, अारक्षण का सांप्रदायीकरण करने की फूहड़ कोशिश, उल्टे-सीधे तर्क अौर अांकड़े अादि सब इसी लालू-लपेट में ध्वस्त होते गये! लालू इस चुनाव की वह पैदल सेना थे, जिसकी काट कोई नहीं कर सका! समसामयिक राजनीतिक को लालू प्रसाद का एक नया मूल्यांकन करना चाहिए अौर लालू प्रसाद को भी अब खुद को गंभीरता से लेना चाहिए.

अंत में नीतीश कुमार! मुझे उनसे सहानुभूति हो रही है, क्योंकि अब तक वे बिहार के मुख्यमंत्री थे, अब अागे भी रहेंगे, लेकिन इस अभियान में वे बिहार के नायक की भूमिका में उभरे हैं. बिहार उनसे पहचाना जाने लगा है. चुनावी माहौल में सार्वजनिक विमर्श का जैसा पतन सबने, सब अोर से किया, उसके बीच एक नीतीश कुमार ही थे, जिन्होंने नीचे गिरने से इनकार कर दिया. वे देश के उन गिने-चुने राजनीतिज्ञों में हैं, जो अाज के दौर में सार्वजनिक व्यहार व विमर्श का व्याकरण बना सकते हैं. बिहार ने अपना मुख्यमंत्री ही नहीं चुना है, बल्कि अपनी राजनीतिक विरासत भी उन्हें सौंपी है. अब नीतीश कुमार को दोहरा बोझ ढोना सीखना होगा.
अौर बिहार! वह अधखुली अांखों से देखने में लगा है कि इस चुनावी जंग में जो जीते अौर जो हारे, उनमें इस राज्य की जर्जर अौर कातर अाबादी के लिए कितना पसीना बचा है. बिहार को किसी के खून की दरकार नहीं है, उसे सबके पसीने की जरूरत है.


कुमार प्रशांत
वरिष्ठ पत्रकार
k.prashantji@gmail.com

Next Article

Exit mobile version