कुछ कहता है दीया
रात चाहे जितनी अंधियारी हो, दीप जलानेवाला आस नहीं छोड़ता. उसके भीतर नेह कभी कम नहीं पड़ता. नेह छला जाता है, धोखा खाता है, तो भी बना रहता है, अपना स्वभाव नहीं छोड़ता. अंधेरे के पार देखना, सुबह का इंतजार करना नेह का स्वभाव है. यही मनुष्य होने का धर्म भी है. मानवता का यही […]
रात चाहे जितनी अंधियारी हो, दीप जलानेवाला आस नहीं छोड़ता. उसके भीतर नेह कभी कम नहीं पड़ता. नेह छला जाता है, धोखा खाता है, तो भी बना रहता है, अपना स्वभाव नहीं छोड़ता.
अंधेरे के पार देखना, सुबह का इंतजार करना नेह का स्वभाव है. यही मनुष्य होने का धर्म भी है. मानवता का यही धर्म एक बार फिर भारतभूमि में भरपूर संकल्प के साथ दीप जलायेगा, यह भूलते हुए कि इस साल सावन ने उसके साथ छल किया है.
सावन का वादा था कि बादल पुरजोर बरसेंगे, लेकिन कम-कम बरसे. हर खेत को चूम कर बरसना था, लेकिन वे दूर खड़े मुंह बिराते रहे. हां, बादल इस साल देर तक थमे रहे, लेकिन थोड़े समय ही बरसे. धनरोपनी के मन में हमेशा रहता है कि वह सांझ ढले तक चलेगी, खेत के एक कोने से शुरू होगी और मेड़ को पार कर उस जमीन तक जायेगी, जिसे दुनिया बंजर कहती आयी है.
लेकिन हमेशा अपने मन का थोड़े ही होता है, धनरोपनी जानती है कि जब आसमान चाहता है तभी अपने मन का होता है. इस साल धनरोपनी के मन का मान आकाश से नहीं रखा. वह सुबह को बड़ी उमंग के साथ शुरू हुई, लेकिन आखिर को प्यास से बेहाल दुपहरिया के दरवाजे तक आकर थम गयी. ढेर सारे खेत हरियाली की नयी साड़ी के लिए इस साल तरसते रहे.
उन्हें इंतजार लगा रहा कि पुरवाई आयेगी तो उनकी आस का संदेशा बादलों तक ले जायेगी. पुरवाई आयी भी, लेकिन उसका मिज़ाज पहले की तरह दुःख से द्रवित होनेवाला नहीं था. इस साल की पुरवाई पता नहीं कौन से आंच से झुलसी थी कि नम होने की जगह बाहर-भीतर गर्म थी. लेकिन सावन और उसकी पुरवाई से शिकायतों का दौर अब बीत चुका है. सावन के बादलों को जितना मुंह बिराना था, भरसक उतना मुंह बिराकर अपने घर लौट चुके हैं. अब आसमान साफ है.
इस साफ आसमान में शरद की पूर्णिमा का चांद निकल चुका है. धनरोपनी के कठिन दिन बीत गये हैं. दिन अब धनकटनी के हैं और देखिए कि शरद के चांद ने अपनी कृपा में तनिक भी कमी नहीं की. उसका अमृत खूब बरसा है. चांद जानता है कि सावन ने धनरोपनी को दगा दिया था. इसलिए शरद के चांद ने अपने अमृत को दोगुना-तिगुना कर बरसाया है, इस आशीर्वाद के साथ कि धान में एक भी बाली आयी है तो उस बाली से सौ-सौ दाने झरेंगे और खलिहान खाली नहीं रहेंगे, उन्हें भरा जायेगा. शरद के चांद के इसी आशीर्वाद के भरोसे इस साल हिंदुस्तान अपनी दीपावली का दीप जलायेगा.
और हमेशा की तरह यह दीप किसी एक देव के लिए नहीं होगा. दीपावली का यह दीप धरती से लेकर आकाश तक मौजूद हर देव, पितर, यति, यक्ष, मनुष्य, लता, गुल्म, वृक्ष, नदी, पहाड़ यानी चर-अचर सबके लिए होगा. दीप जलानेवाले के हाथ जानते हैं कि हर दीप चाहे जितना अनूठा हो, लेकिन उसकी शोभा पांत में होने से ही है. अकेले का कोई दीप नहीं शोभता.
इस विश्वास के साथ हिंदुस्तान के हर घर में एक दिया जलेगा आंगन में तुलसी के पास, ब्याही बेटी को याद करके सुख-समृद्धि के आशीर्वाद के साथ. एक दीया जलेगा गांव के सीवान पर परदेसी बेटे की याद में, चाहे वह इस साल घर आने का वादा हमेशा की तरह अलगे साल के लिए टाल जाये. एक दीया जलेगा चूबतरे के पीपल के पास, इस विश्वास के साथ कि पीपल पर मौजूद सौ साल पुराना ब्रह्मदेव गांव छोड़कर जानेवाले हर किसी को एक-न-एक दिन लौटा लायेंगे.
एक दीया घर से दूर के खेत में कायम ‘सत्तीमईया’ के लिए जलेगा. यह ‘सत्तीमईया’ का अडिग ‘सत्त’ ही तो है कि हजार अंधड़ चले, तूफान आये, परिवार बार-बार बिखड़ा, लेकिन हर बार आखिर को एक हुआ, गांव बना रहा. एक दीया पोखर के भिंड पर, एक दीया कुएं के जगत पर, एक दीया नहर के सायफन पर और एक दीया गांव से बाहर जाती सड़क के किनारे- ऐसा प्रकाश तो बस प्रेम से ही संभव है.
प्रेम अक्षय और अनंत, सदा चर-अचर, दृश्य-अदृश्य, भूत और भविष्य सबके लिए! दीपावली का यह भाव सबसे नहीं सधता. उनसे तो एकदम ही नहीं सधता, जिनके भीतर रोशनी को मुट्ठी में करने लेने के दंभ होते हैं, जो समझते हैं कि प्रकाश तो एक व्यवस्था है, जिसको जलाने और बुझाने का खिलवाड़ एक अंगुली के इशारे से किया जा सकता है. लेकिन नहीं, हिंदुस्तान जानता है कि रोशनी को कैद नहीं किया जा सकता.
सबके लिए होने में ही रोशनी की महिमा है. गोपालदास नीरज ने लिखा था ना- सृजन शांति के वास्ते है जरूरी/ कि हर द्वार पर रोशनी गीत गाये/ तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा/ कि जब प्यार तलवार से जीत जाये. तो आइए, इसी भाव से इस दीपावली पर दीपों की एक पांत हम भी सजाएं. चर-अचर, सबके लिए मंगलकामनाओं के साथ.