इन दिनों खबरिया चैनलों में चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों के नतीजों की भरमार है. पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की तारीख नजदीक आने के साथ-साथ बढ़ रहे सियासी बुखार को भुनाने के लिए ‘जनता की राय’ जनता को बतायी जा रही है. ये नतीजे चौक-चौबारों पर बहस-मुबाहिसों को जन्म दे रहे हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि अपने खिलाफ जा रहे इन सर्वेक्षणों के नतीजे कांग्रेस को नागवार गुजरे हैं.
चुनाव आयोग द्वारा राय मांगे जाने पर पार्टी ने इन सर्वेक्षणों को धोखाधड़ी से भरा और मनगढ़ंत बताते हुए इन्हें पूरी तरह प्रतिबंधित करने की मांग की है. कांग्रेस पार्टी की राय से इत्तेफाक रखने की कई वजह हो सकती है. मसलन, यह एक तथ्य है कि भारत में अभी भी ज्यादातार चुनाव सर्वेक्षण का पूर्णतया वैज्ञानिक तरीका विकसित नहीं किया जा सका है. इनकी वस्तुनिष्ठता भी संदेह के दायरे में है. कई बार ऐसा हुआ है कि ये सर्वेक्षण जनता का मूड भांपने में पूरी तरह से नाकाम साबित हुए हैं. यह भी देखा गया है कि ये सर्वेक्षण कभी-कभार नतीजों को भी प्रभावित करते हैं.
लेकिन सिर्फ इस बिना पर कांग्रेस की मांग की तार्किकता सवालों के घेरे में है. पार्टी का तर्क यह है कि ये सर्वेक्षण गलत तरीके से जनता के मूड को प्रभावित करते हैं और इसका नकारात्मक असर चुनाव नतीजों पर पड़ सकता है. लेकिन कांग्रेस यह भूल रही है कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षण भले ही किसी पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने का काम करें, लेकिन आखिरी फैसला जनता को ही करना है. कई ऐसे मौके आये हैं, जब जनता चुनाव पंडितों को झुठलाते हुए, चौंकानेवाले परिणाम देती रही है.
2004 का आम चुनाव इसका बेहतरीन उदाहरण है. उस दौरान तकरीबन सभी सर्वेक्षणों ने एनडीए को बढ़त में दिखाया था, लेकिन परिणाम ठीक विपरीत आये. इंडिया शाइनिंग को पीछे छोड़ते हुए कांग्रेस का आश्चर्यजनक ‘उदय’ हुआ. जानकारों की राय में ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि जनमत सर्वेक्षणों की वजह से भाजपा(एनडीए) विरोधी तत्व एकजुट हुए. चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों को वैज्ञानिक और निष्पक्ष बनाने की मांग जरूर तार्किक है, लेकिन उसे प्रतिबंधित करने की मांग और कोशिशों को जनता और मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ ही कहा जा सकता है.