बच्चों से ज्यादा बूढ़ा तो नहीं हो गया हूं?

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि बचपन में मैं भी एक बच्चा ही था. यह बात खुशी की इसलिए है, क्योंकि सभी लोग यह दावा नहीं कर सकते और आज के ज्यादातर बच्चे तो बड़े होकर बिल्कुल नहीं कर सकेंगे. गरीब मां-बाप के यहां पैदा होनेवाले बच्चों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 14, 2015 5:49 AM

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि बचपन में मैं भी एक बच्चा ही था. यह बात खुशी की इसलिए है, क्योंकि सभी लोग यह दावा नहीं कर सकते और आज के ज्यादातर बच्चे तो बड़े होकर बिल्कुल नहीं कर सकेंगे. गरीब मां-बाप के यहां पैदा होनेवाले बच्चों को देखिए, जो होश संभालते ही मजदूरी करने लगते हैं और इस तरह बचपन छोड़ सीधे बड़ेपन में प्रवेश कर जाते हैं. बड़ा संयम और साधना है भई उनकी, जो घरों में दूध-ब्रेड पहुंचाते हुए उसे पी-खा नहीं डालते और खिलौनों की दुकान पर खरीदारों को खिलौने दिखाते हुए उनसे खेलने के लिए मचलते नहीं.

मध्य वर्ग के बच्चे ही कहां बचपन का मजा लूट पाते हैं? आज की गलाकाट प्रतिस्पर्धा, बल्कि प्रतिद्वंद्विता के चलते उन पर बचपन से ही एक्सेल करने की चुनौती और तनाव रहता है, क्योंकि एक्सेल नहीं करेंगे, तो एक्सीलेंट कैसे कहला पायेंगे और मां-बाप की बात-बात पर कटने पर उतारू नाक कैसे बचा पायेंगे?

जहां तक बड़े घरों के बच्चों के बचपन की बात है, तो मां-बाप को उन्हें कन्सीव करने-कराने का समय भी पता नहीं कैसे मिल पाता है! उनके पैदा होने के बाद तो उनके पास उनके लिए समय ही नहीं रहता. इसलिए मोबाइल, टैबलेट, लैपटॉप और कंप्यूटरों में उलझे वे बेचारे भी सीधे बड़े ही होते दिखाई देते हैं.

बच्चों के छिनते बचपन की चिंता युवा कवि कुमार वीरेंद्र ने अपनी ‘पैराव’ नामक कविता में की है. बाबा-पोता संवाद के रूप में लिखी गयी इस कविता में पोता बाबा को पानी पीने से पहले हर बार लोटे में झांकते देख इसका कारण पूछता है, तो कवि के अपने शब्दों में बाबा ने- हाथ पकड़ पास बैठा लिया/ और मेरे दोनों कान्हों (कंधों) पर/ अपने हाथ रखते, निहारते कहा/ मैं कभी-कभी झांक लिया करता हूं यार/ कि कहीं तुझसे जादा बूढ़ा तो नहीं हो गया हूं…

बचपन में तो मुझे यही लगा करता कि बाल दिवस जिस चाचा के नाम पर मनाया जाता है, वह चाचा नेहरू नहीं, बल्कि चाचा चौधरी है. आज के कंप्यूटर-सेवी बच्चे सोच भी नहीं सकते कि चाचा चौधरी का दिमाग उस जमाने में भी कंप्यूटर से भी ज्यादा तेज चलता था, जब कंप्यूटर आम इस्तेमाल में नहीं थे.

चाचा चौधरी का एक साथी था साबू, जो जूपिटर ग्रह से आया था और जिसका शरीर दैत्याकार था. एक चाची भी थीं, जिनका नाम बिनी चाची था. उनके बच्चे नहीं थे, पर पिंकी और बिल्लू उनके बच्चों जैसे ही थे. उनके पास रॉकेट नाम का एक कुत्ता भी था, जो स्लर्प-स्लर्प दूध पीता था. इतना ही नहीं, उनके पास डगडग नाम का एक ट्रक भी था.

इन सबकी सहायता से चाचा चौधरी हर बार अपराधियों को हरा देते थे और निडरता, कर्मठता, ईमानदारी का संदेश देते थे. आज बच्चों के पास शिन चैन है, जो बदतमीजी में अग्रणी है, या फिर नोबिता, जो कामचोरी सिखाता है. इन बच्चों को देख कर मैं भी लोटे में झांक कर यह देखने के लिए मजबूर हो जाता हूं कि कहीं उनसे ज्यादा बूढ़ा तो नहीं हो गया हूं मैं?

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