किसी पार्टी के नहीं, देश के हैं नेहरू

पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार दिल्ली के इंदिरा गांधी स्टेडियम में आज कांग्रेस जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती के अपने सालाना जलसे का पर्दा गिरायेगी, जो उसने साल भर पहले 14 नवंबर को ही नेहरू की 125 जयंती की शुरुआत यह कह कर की थी कि धर्मनिरपेक्षता और नेहरूवाद का जश्न साल भर मनाया जायेगा. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 14, 2015 5:54 AM
पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
दिल्ली के इंदिरा गांधी स्टेडियम में आज कांग्रेस जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती के अपने सालाना जलसे का पर्दा गिरायेगी, जो उसने साल भर पहले 14 नवंबर को ही नेहरू की 125 जयंती की शुरुआत यह कह कर की थी कि धर्मनिरपेक्षता और नेहरूवाद का जश्न साल भर मनाया जायेगा. याद कीजिए, पिछले साल कांग्रेस ने प्रधानमंत्री मोदी को ही यह कह कर निमंत्रण नहीं दिया था कि समारोह में सिर्फ सेक्यूलर लोगों को बुलाया जाता है.
आज नेहरू जयंती का समापन दिल्ली के नेहरू पार्क में संगीत के साथ होगा.साल भर पहले 125वीं जयंती के साथ ही जो सियासी संगीत नेहरू के पक्ष-विपक्ष को लेकर शुरू हुआ, उसने बरस भर में इतनी कटुता नेहरू के नाम पर ही कांग्रेस और मोदी सरकार के रवैये से भर दी कि यह सवाल उठने लगा कि आखिर प्रधानमंत्री मोदी नेहरू के खिलाफ क्यों हैं या फिर कांग्रेस ने नेहरू को अपनी संपत्ति क्यों बना ली है?
इसका असर यह हुआ कि बरस भर में ही प्रधानमंत्री मोदी ने इसके संकेत दे दिये कि नेहरू से बेहतर तो सरदार पटेल होते, अगर वह देश के पहले पीएम बना दिये जाते. तो क्या नेहरू कांग्रेस के हैं और पटेल भाजपा के हो गये? यानी यह सच हाशिये पर चला गया कि नेहरू हों या पटेल दोनों भारत के हैं.
दोनों ने महात्मा गांधी को ही गुरु माना. लेकिन मौजूदा दौर में सियासी धार इतनी पैनी हो चुकी है कि इतिहास को भी अपने अनुकूल करनेवाले हालात पैदा हो चले हैं. स्टांप पेपर से नेहरू गायब हो चले हैं. झटके में श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीन दयाल उपाध्याय उसी राष्ट्रीय फलक पर छाने लगे हैं, जिस पर कभी नेहरू-पटेल होते थे.
लेकिन इतिहास के पन्नों को खंगालने में मुश्किल तो कांग्रेस के सामने भी आयेगी और भाजपा के सामने भी, क्योंकि दोनों अपने-अपने दायरे में कटघरे में नजर आयेंगे. आजादी और विभाजन के वक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका और आजादी के तुरंत बाद कांग्रेस की महात्मा गांधी को लेकर भूमिका कुछ ऐसे सवालों को जन्म तो देती ही है, जिससे मौजूदा राजनीतिक हालात में दोनों बचना चाहेंगे. याद कीजिए, 15 अगस्त, 1947 को महात्मा गांधी दिल्ली में नहीं थे. उन्हें कांग्रेस कार्यसमिति में बुलाया भी नहीं गया, जबकि उसी कार्यसमिति में कांग्रेस ने देश विभाजन का प्रस्ताव स्वीकार किया था. महात्मा गांधी मर्माहत हुए थे.
वे मौन रहे. उनका मौन अधिक मुखर था. उससे संदेश निकला, जिसे पूरे देश ने समझा कि कांग्रेस के लिए अब महात्मा गांधी अनजाने बन गये हैं. कांग्रेस सत्ता की राजनीति में लिप्त हो गयी थी. उसने अपनी वैधता के लिए महात्मा गांधी का सहारा लिया. लेकिन महात्मा गांधी के रास्ते को भुला दिया. इससे सरदार पटेल भी आहत हुए. उन्होंने कई मौकों पर महात्मा गांधी से मुलाकात कर अपना दुख भी बताया और नेहरू मंत्रिमंडल छोड़ने की भी बात कही.
30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या से पहले सरदार पटेल के साथ गांधी जी की बातचीत का वह सिरा जनसंघ से लेकर मौजूदा भाजपा और आरएसएस बार-बार पकड़ते हैं कि महात्मा गांधी कांग्रेस को ही डिजाल्व कराने के पक्ष में थे. और ध्यान दीजिए तो भाजपा इसी नब्ज को पकड़ कर नेहरू-विरोध के पटेल के स्वर को इस हद तक ले जाने से नहीं कतराती, जहां पटेल उसके हो जायें और नेहरू कांग्रेस के कहलाएं. लेकिन इस सियासी संघर्ष में राज्यसत्ता ही भारत की उन तीन मान्यताओं को भूलने लगी है, जो धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता और समानता पर टिकी है.
जब जनसंघ के लोग जनता पार्टी में थे, तब वे नयी दिशा पकड़ना चाह रहे थे. लेकिन उन्हें पुराने रास्तों पर लौटाने के लिए उस वक्त मजबूर किया गया. और तब भी यह सवाल उठा था. संसद में दिये गये चंद्रशेखर के बयान पर खासा बवाल हुआ था. जब अयोध्या का सवाल उठ रहा था, तब चंद्रशेखर ने ही कहा था कि भाजपा कोई राजनीतिक पार्टी नहीं, बल्कि संघ परिवार का राजनीतिक संगठन है.
सत्ता में आने के बाद भाजपा की मान्यताओं का कोई अर्थ नहीं रहेगा और संघ परिवार की मान्यताएं प्रभुत्व प्राप्त करेंगी. लेकिन नया सवाल तो यह है कि क्या संघ, कांग्रेस या भाजपा के जरिये नेहरू-पटेल और गांधी को अपने-अपने कब्जे में करने की होड़ देश की जरूरत है या फिर सरकारों की विफलता में अब नयी सोच की जरूरत है. क्योंकि अब सवाल यह है कि मिश्रित अर्थव्यवस्था का रास्ता हमने छोड़ दिया है.
अर्थव्यवस्था फिर गुलाम मानसिकता की दिशा में बढ़ कर भ्रम पैदा कर रही है कि विदेशी कंपनियां हमारा विकास करने के लिए पूंजी लगायेंगी. सच तो यह है कि विदेशी कंपनियां मुनाफा कमाने ही आयेंगी. यानी आर्थिक गुलामी की तरफ एक बार फिर कदम बढ़ रहे हैं, तो फिर सवाल किसी षड्यंत्र का नहीं, बल्कि नासमझी का है. मसलन, एफडीआइ से कितना रोजगार पैदा हुआ? क्या कोई सरकार इस पर श्वेत पत्र ला सकती है?
देश की अपार जनशक्ति को ही जब सरकारें बोझ मानने लगें, तो फिर रास्ता क्या है? जनशक्ति का उपयोग कैसे हो, इसे महात्मा गांधी ने समझा. मौजूदा नेताओं ने लोगों को निजी लाभ-हानि के घरौंदे में कैद कर लिया. समाज का आत्मबल नेताओं की चुनावी जीत-हार पर जा टिका.
सरकारी तंत्र पर निर्भरता बढ़ा दी गयी. ऐसे में जो सरकारी तंत्र से जुड़े, वे मन से गांव या गरीबी से नहीं जुड़े. आपसी सहयोग से समाज की ताकत का सार्थक उपयोग तभी संभव है, जब सरकारी तंत्र नयी चुनौतियों के लिए दीक्षित हो और सत्ताधारी राजनेता जनशक्ति को वोट बैंक से बढ़ कर देखे. हुआ उल्टा. जाति-मजहब के आधार पर समाज की चेतना भड़कायी गयी, तो परिणाम भी खतरनाक निकलने लगे. विवाद-तनाव सियासी जरूरत बन गये. असहिष्णुता समाज से ज्यादा राजनेताओं काे भाने लगी.
यानी रास्ता तो राष्ट्रीय अस्मिता जगा कर ही पैदा हो सकता है. लेकिन, रास्ता मजहब, जाति, क्षेत्रीयता सरीखे संकीर्ण मानसिकता को उभारनेवाले बनने लगे. ग्रामीण भारत बेबसी और निरीह राष्ट्र की मानसिकता में जीने लगा, तो शहरी और उपभोक्ताओं को गौरवमयी भारत दिखाई देने लगा. लेकिन दोनों मानसिकताएं राष्ट्रीय अस्मिता का गौरव पाने से दूर हैं.
इसलिए नेहरू-पटेल हैं किसके और महात्मा गांधी के सपनों का भारत होना कैसा चाहिए, उस झगड़े से हट कर अगर समाज के आत्मबल, अपनी ही खनिज संपदाओं और श्रेष्ठ मान्यताओं के आसरे रास्ते नहीं खोजे गये, तो हमारी कमजोरियाें का लाभ उठा कर देश को बिखराव की तरफ ले जाने की कोशिश तेज हो सकती है.

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