पेरिस के सबक

पेरिस की त्रासदी के विश्लेषणों में वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध पिछले 15 वर्षों से चल रहे युद्ध की समीक्षा जरूरी है. अफगानिस्तान और इराक पर हमलों के नायक अपने फैसले पर अफसोस जता रहे हैं. यह जगजाहिर है कि अमेरिका और फ्रांस समेत यूरोप के कई देशों ने अपने भू-राजनीतिक और वाणिज्यिक हितों की पूर्ति […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 16, 2015 12:39 AM

पेरिस की त्रासदी के विश्लेषणों में वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध पिछले 15 वर्षों से चल रहे युद्ध की समीक्षा जरूरी है. अफगानिस्तान और इराक पर हमलों के नायक अपने फैसले पर अफसोस जता रहे हैं. यह जगजाहिर है कि अमेरिका और फ्रांस समेत यूरोप के कई देशों ने अपने भू-राजनीतिक और वाणिज्यिक हितों की पूर्ति के लिए आतंक के विरुद्ध युद्ध का सहारा लिया है.

इस कड़ी में उन्होंने आतंकवादी संगठनों का श्रेणीकरण भी किया और अनेक गिरोहों को संरक्षण की नीति अपनायी. अल कायदा से लेकर इसलामिक स्टेट और अल-नुसरा तक अनेक गिरोह पश्चिम के दोहरे रवैये के उदाहरण हैं. शायद ही दुनिया का कोई ऐसा देश है, जो आतंक से तबाह न हुआ हो. लेकिन, पश्चिमी देशों ने इस संकट के समाधान में उनकी राय और चिंताओं को बहुत अधिक तरजीह नहीं दी. भारत के विरुद्ध हिंसा की पैरोकारी कर रहे लश्कर-ए-तैयबा और जमात-उल दावा जैसे संगठनों पर पाबंदी लगाने में पश्चिम ने बहुत देर की. क्योंकि, इनके आतंक का साया उनसे बहुत दूर था.

अरब देशों और अफगानिस्तान में तो उन्होंने गिरोहों का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करने से भी परहेज नहीं किया. सीरिया, इराक, लीबिया और यमन के गृह युद्ध उन्हीं नीतियों के नतीजे हैं. तबाही का पर्याय बन कर उभरे इसलामिक स्टेट के पास न सिर्फ अत्याधुनिक हथियारों और वाहनों का जखीरा है, बल्कि उन्हें निर्बाध रूप से लड़ाकों और धन की आपूर्ति भी जारी है.

अरब के 17 देशों ने पिछले साल 135 बिलियन डॉलर से अधिक खर्च अपनी सेनाओं के बजट में किया था और ये देश दुनिया में सबसे अधिक हथियारों और अन्य साजो-सामान की खरीद करते हैं. खाड़ी देशों के सैन्य बजट में पिछले दशक में 71 फीसदी से अधिक की बढ़ोतरी हुई है. जानकारों की मानें, तो इनमें से बड़ा हिस्सा गृह युद्धों और आतंकी गिरोहों के पास जाता है. इसलामिक स्टेट के काफिलों में सैकड़ों वाहनों और बख्तरबंद गाड़ियों से यह अंदाजा लगाया जा सकता है. अरब की हिंसा की आंच आतंक के रूप में दुनिया भर में पहुंच रही है. यूरोप में बेबस शरणार्थियों का हुजूम उमड़ रहा है. ऐसे में अब जरूरी यह है कि पश्चिम के देश अपनी नीतियों पर गंभीरता से आत्ममंथन करें और समुचित पहल करें. अभी जो बेरूत और पेरिस में हुआ है, वह अब और कहीं और कभी नहीं होना चाहिए.

Next Article

Exit mobile version