आतंकवाद का अंत
आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध का मुहावरा एक दशक से ज्यादा पुराना है. हाल के वर्षों में शायद ही कोई अंतरराष्ट्रीय बैठक आतंकवादी गतिविधियों की समाप्ति के लिए देशों के बीच सहमति और साझी रणनीति की जरूरत को रेखांकित किये बगैर समाप्त हुई है. लेकिन, सच यह भी है कि आतंकवाद के विरुद्ध अमेरिका की […]
पेरिस में हुए आतंकी हमलों के चंद दिन बाद पेरिस के ही उपनगरीय इलाके में आतंकियों ने आत्मघाती हमले को अंजाम दिया है. आतंकवाद अकेले फ्रांस या विकसित मुल्कों की चुनौती नहीं है. इस साल जनवरी में पेरिस में शार्ली एब्दो पत्रिका के दफ्तर पर हमले के बाद अप्रैल में केन्या के विश्वविद्यालय परिसर, जुलाई में नाइजीरिया तो नवंबर में पेरिस से पहले बेरूत में भी आतंकियों ने बेगुनाह नागरिकों के खून बहाये हैं. विभिन्न देशों में हुई आतंकी घटनाओं की सूची काफी लंबी है. जाहिर है, यदि आतंकी संगठन कमजोर नहीं पड़ रहे हैं, तो माना यही जायेगा कि आतंकवादरोधी रणनीतिक तैयारियों में कोई कमी है या फिर आतंकवाद को लेकर अलग-अलग देशों के कुछ निहित स्वार्थ हैं, जो आतंकवादरोधी कार्रवाइयों को सफल नहीं होने देते.
शीतयुद्ध के जमाने में विकसित मुल्कों ने साम्यवादी व्यवस्था के विरुद्ध जेहादी संगठनों को खड़ा करने में भूमिका निभायी और बाद में अलकायदा भस्मासुर की तरह उन्हीं मुल्कों पर टूट पड़ा. यही हाल आइएस का है. विकसित मुल्कों का एक गुट आइएस को ढके-छिपे शह देता रहा है, क्योंकि उसे लगता है सीरिया या फिर इराक में ऊर्जा और हथियार उद्योग संबंधी अपने हित साधने में आइएस की बर्बर कार्रवाइयां कुछ हद तक सहायक साबित हो रही हैं. पेरिस हमले के बाद रूसी राष्ट्रपति पुतिन के मुंह से यह सच निकल ही गया कि कि जी-20 में शामिल देशों सहित करीब 40 देश अलग-अलग कारणों से आइएस के मददगार हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा है कि जब तक आतंकी संगठनों को जिंदा रखनेवाले वित्तीय स्रोतों को अवरुद्ध नहीं किया जाता, तब तक दुनिया में कहीं भी हमला करने की उनकी ताकत को कमजोर नहीं किया जा सकता. आतंकवाद से निपटने के लिए जारी विश्वयुद्ध के लिए बेहतर यही है कि आतंकियों की ताकत को बढ़ानेवाली हर बात, चाहे वह हथियारों का अवैध व्यापार हो, तेल की गैरकानूनी खरीदारी हो या फिर हवाला और मादक पदार्थों के कारोबार का नेटवर्क हो, सब पर एकबारगी समान रूप से लगाम कसी जाये.