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लौह महिला इंदिरा गांधी की याद

इंदिरा ने अपने छुटपन में ही स्वाधीनता संघर्ष से जुड़ कर ‘वानर सेना’ गठित की थी, जो विरोध प्रदर्शनों में कांग्रेसियों की मदद करती और प्रतिबंधित प्रकाशनों व सामग्रियों को पुलिस की निगाह बचा कर इधर से उधर ले जाती थी. देश की इकलौती महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कुल चार प्रधानमंत्रीकाल इतने घटनाप्रवण रहे […]

इंदिरा ने अपने छुटपन में ही स्वाधीनता संघर्ष से जुड़ कर ‘वानर सेना’ गठित की थी, जो विरोध प्रदर्शनों में कांग्रेसियों की मदद करती और प्रतिबंधित प्रकाशनों व सामग्रियों को पुलिस की निगाह बचा कर इधर से उधर ले जाती थी.

देश की इकलौती महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कुल चार प्रधानमंत्रीकाल इतने घटनाप्रवण रहे हैं और इस दौरान उनका काम का तरीका इतने ‘आर या पार’ वाला रहा कि आज हमारे पास न उन्हें याद करने के अच्छे कारणों की कमी है, न ही बुरे. जो लोग उन्हें बुरे कारणों से याद करते हैं, वे भी उनके पक्के इरादों, दृढ़ता या लौह महिला के स्वरूप पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाते. 1965 में पाकिस्तान से युद्ध के बाद सोवियत संघ गये तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के वहीं ताशकंद में असमय मृत्यु के बाद 24 जनवरी, 1966 को इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं, तो 1967 के आम चुनाव में जीत के बाद जुलाई, 1969 में राजे-महाराजाओं का प्रिवीपर्स खत्म कर बैंकांे का राष्ट्रीयकरण किया. वे चाहती थीं कि गरीबों व वंचितों के लिए बैंकों तक पहुंच बनाना आसान हो जाये. उन्हीं के काल में हम हरितक्रांति को खाद्यान्न आत्मनिर्भरता तक ले गये और श्वेतक्रांति का सपना साकार हुआ. उन्होंने पाकिस्तान को धूल चटा कर उसके पूर्वी हिस्से को बांग्लादेश नामक नये देश के तौर पर दुनिया के नक्शे में जगह दिलायी. 1974 में पोखरण में पहले भूमिगत परमाणु परीक्षण की दिशा में भी बढ़े.

उनके 1980 के बाद के प्रधानमंत्रीकाल में सिख आतंकवादियों ने अपनी सीमाएं तोड़ीं, तो अमृतसर के स्वर्णमंदिर में सेना के ‘आॅपरेशन ब्लूस्टार’ के फैसले से भी उन्हें गुरेज नहीं हुआ. तीन से छह जून (1984) तक चले इस आॅपरेशन की कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी और 31 अक्तूबर, 1984 को दो उन्मादी अंगरक्षकों ने उनके निवास पर ही गोलियों से छलनी करके उनके प्राण ले लिये.

लेकिन, आज उनका सबसे महत्वपूर्ण काम 1976 में उन्हीं की पहल पर संविधान में किया गया 42वां संविधान संशोधन है, जिसकी बिना पर ‘धर्मनिरपेक्षता’ व ‘समाजवाद’ को संविधान की प्रस्तावना में जगह मिली. इसी की बदौलत तीन जनवरी, 1977 को देश ‘प्रभुत्वसंपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ से ‘संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ में परिवर्तित हुआ. असहिष्णुता के बढ़ते ताप से दोे-चार इस देश से बेहतर और कौन समझ सकता है कि उस वक्त उन्होंने ‘धर्मनिरपेक्षता’ को अनिवार्य संवैधानिक मूल्य न बना दिया होता, तो सांप्रदायिक व संकीर्णतावादी शक्तियां हमारा क्या हाल करतीं.

दूसरे पहलू पर जायें, तो 1975 में इलाहाबाद हाइकोर्ट ने उनका रायबरेली से निर्वाचन अवैध घोषित किया और विपक्ष ने उन पर इस्तीफे का दबाव बनाया, तो उन्होंने देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा बता कर विपक्षी नेताओं को जेल भेज दिया, इमर्जेंसी लगा कर नागरिकों के मौलिक अधिकार छीन लिये और समाचारपत्रों पर सेंसर थोप दिया. 1977 के लोकसभा चुनाव में गुस्साई जनता ने उन्हें इसकी सजा दी और वे रायबरेली की लोकसभा सीट भी हार गयीं. प्रधानमंत्री रहते हुए चुनाव हारने का इस देश का यह अनूठा रिकाॅर्ड उन्हीं के नाम दर्ज है.

19 नवंबर, 1917 को इंदिरा गांधी इलाहाबाद में श्रीमती कमला नेहरू और पंडित जवाहरलाल नेहरू की इकलौती पुत्री के रूप में जन्मीं. उनका ‘इंदिरा’ नाम उनके दादा मोतीलाल नेहरू ने रखा. नेहरू उन्हें दस पुत्रों के बराबर बताते और प्यार से ‘इंदु’ कहते थे. 1934-35 में वे गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित शांति निकेतन के विश्व भारती विवि में पढ़ने गयीं, जहां गुरुदेव ने उनके नाम में ‘प्रियदर्शिनी’ शब्द जोड़ दिया. 16 मार्च, 1942 को पिता के विरोध के बावजूद अपने आॅक्सफोर्ड विवि के मित्र फिरोज गांधी से प्रेमविवाह करके वे इंदिरा गांधी बन गयीं.

जब वे सिर्फ 18 साल की थीं, तपेदिक से पीड़ित अपनी मां कमला नेहरू को खो बैठीं और 1960 में जब नेहरू के साथ विदेश दौरे पर गयी हुई थीं, तो उनके पति फिरोज गांधी यह संसार छोड़ गये. इंदिरा ने अपने छुटपन में ही स्वाधीनता संघर्ष से जुड़ कर ‘वानर सेना’ गठित की थी, जो विरोध प्रदर्शनों व जुलूसों में कांग्रेसियों की मदद करती और प्रतिबंधित प्रकाशनों व सामग्रियों को पुलिस की निगाह बचा कर इधर से उधर ले जाती थी. विभाजन के बाद शरणार्थी शिविरों के संचालन और शरणार्थियों की चिकित्सा में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभायीं. नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के बाद से उनके देहांत तक वे उनकी गैरसरकारी वैयक्तिक सहायक रहीं, जबकि 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष भी चुनी गयीं.

नेहरू के निधन के बाद कांग्रेस के भीतर चले सत्तासंघर्ष से अलग रह कर वे लालबहादुर शास्त्री मंत्रिमंडल में सूचना व प्रसारण मंत्री बनीं. मंत्री के रूप में जहां उन्होंने चेन्नई में हिंदी विरोधी आंदोलन को शांत करने में महत्वपूर्ण योगदान किया, वहीं 1965 के युद्ध में श्रीनगर के सीमा क्षेत्र में उपस्थित रह कर सैनिकों का मनोबल बढ़ाया.

कृष्ण प्रताप सिंह

वरिष्ठ पत्रकार

kp_faizabad@yahoo.com

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