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पेरिस के बहाने इसलामोफोबिया का खेल

पेरिस हमले के बाद आइएस अपने मकसद में कामयाब रहा है और यूरोप समेत दुनियाभर में शरणार्थियों को बसाने की मुहिम थम-सी गयी है. आइएस चर्चा में है. यही तो आइएस चाहता था. राजनीति विज्ञानी सैमुअल पी हंटिंगटन अरसे तक हार्वर्ड और कोलंबिया विवि में पढ़ाते रहे. 1957 में ‘द सोल्जर एंड द स्टेट’ से […]

पेरिस हमले के बाद आइएस अपने मकसद में कामयाब रहा है और यूरोप समेत दुनियाभर में शरणार्थियों को बसाने की मुहिम थम-सी गयी है. आइएस चर्चा में है. यही तो आइएस चाहता था.
राजनीति विज्ञानी सैमुअल पी हंटिंगटन अरसे तक हार्वर्ड और कोलंबिया विवि में पढ़ाते रहे. 1957 में ‘द सोल्जर एंड द स्टेट’ से लेकर 1991 में ‘द थर्ड वेव’ तक उनकी दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित हुईं, मगर हंटिंगटन हिट हुए 1993 में प्रकाशित ‘दि क्लैश आॅफ सिविलाइजेशंस’ से. इस पुस्तक ने पूरी दुनिया के बौद्धिक जगत को बहस के केंद्र में ला दिया था. हंटिंगटन का मानना था कि शीत युद्ध के खात्मे के बाद भविष्य की लड़ाई देशों के बीच नहीं, संस्कृतियों के बीच होगी, और इसलामी अतिवाद पश्चिमी दुनिया के लिए बड़े खतरे के रूप में प्रस्तुत होगा. ‘दि क्लैश आॅफ सिविलाइजेशंस’ (संस्कृतियों की टकराहट) जैसे शब्द का सबसे पहला इस्तेमाल 1926 में बाजिल मैथ्यु ने अपनी पुस्तक ‘यंग इसलाम आॅन ट्रैक’ और उनके बाद अस्तित्ववाद के प्रणेता अल्बर्ट कामू ने 1946 में किया था.
हंटिंगटन के बीच-बहस में आने की वजह यह प्रतिपादित करना था कि विचारधाराओं की समाप्ति चरम पर पहुंचते ही दुनिया भर में संस्कृतियों की टकराहट शुरू होगी. हंटिंगटन ने वेस्टर्न, आॅर्थोडाॅक्स, इसलामिक, अफ्रीकी, लातिन अमेरिकी, चीनी, हिंदू, बौद्ध और जापानी जैसी नौ संस्कृतियों में विभाजित कर दुनिया को अलग-अलग करके देखने की कोशिश की थी. हंटिंगटन ने भारत और रूस की सभ्यता को ‘स्विंग सिविलाइजेशन’(परिवर्तनशील सभ्यता) माना था और यह भविष्यवाणी की थी कि रूस अपनी दक्षिणी सीमा पर चेचन जैसे नस्ली मुसलिम गुटों से भिड़ता रहेगा, लेकिन उसकी पटरी ईरान से बैठेगी. उनका कयास था कि ‘साइनो-इसलामिक कनेक्शन’ शुरू होगा, जिसमें चीन, ईरान, पाकिस्तान जैसे देशों से दोस्ती गांठेगा. इसकी भी कल्पना की थी कि इसलाम में जनसांख्यिकी वृद्धि विस्फोटक तरीके से होगी, और मुसलिम बनाम गैर-मुसलिम सभ्यताओं के बीच ‘खूनी सरहदें’ बनेंगी.
हंटिंगटन बस यहीं चूक गये. यह ठीक है कि मुसलिम जनसंख्या विस्फोटक तरीके से बढ़ रही है, लेकिन क्या दुनिया भर में इसलाम को माननेवाले एक मंच पर हैं? सात जनवरी, 2015 को पेरिस में शार्ली एब्दो पर हमले की अरब लीग और मिस्र में सुन्नी मत का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय ‘अल-अजहर’ ने जम कर निंदा की थी. 14 नवंबर, 2015 तक आइएस ने सीरिया, इराक से बाहर 23 हमले किये हैं, जिनमें से पेरिस में दो हमलांे को छोड़ दें, तो बाकी 21 हमले आइएस ने मुसलमान देशों में ही किये हैं. जितनी बड़ी संख्या में आइएस द्वारा मारे गये लोगों की सामूहिक कब्रें मिल रही हैं, वह कहीं से हंटिंगटन की थ्योरी को पुष्ट नहीं करतीं कि इसलाम को माननेवाले संगठित हैं. बल्कि, हंटिंगटन की थ्योरी से अमेरिका, इजराइल और उसके मित्रों को इसलाम के विरुद्ध माहौल बनाने में मदद मिलती है. एक सच यह भी है कि पिछले कई दशकों से इसलाम भयानक अंतर्विरोधों से गुजर रहा है. एक इसलाम वह, जो कट्टरपंथ से बाहर निकल कर पश्चिमी विचारों से तालमेल करता हुआ है, दूसरा वह जो हजरत मुहम्मद के दौर के खलीफा शासन व्यवस्था को लागू करने के नाम पर ‘आइएस’, अलकायदा, तालिबान, बोको हराम जैसे बर्बर संगठनों द्वारा नियंत्रित व गुमराह होता है.
बोको हराम ने नाइजीरिया और उत्तर-पूर्वी अफ्रीका में 17 हजार से अधिक हत्याएं कीं. नाइजीरिया में मुसलमानों का छतरी संगठन ‘जमातुल नसरील इसलाम’ ने दावा किया कि बोको हराम ने ईसाइयों से अधिक मुसलमानों को मारा है. बोको हराम ने कई ऐसे हमले किये, जब मुसलमान नमाज अदा कर रहे थे. बोको हराम के हमलों से लेकर मुंबई का 26/11 तक अमेरिका और उसके मित्रों के लिए आतंकवाद का व्यापक विषय क्यों नहीं बना? आइएस ने भी इराक से लेकर मिस्र, यमन, सऊदी अरब तक में जितने हमले किये, उसके शिकार सुन्नी मुसलमान ज्यादा रहे हंै. इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता. इस समय पूरी दुनिया में इसलामी मीडिया आशंकित है कि आइएस के सफाये के नाम पर आटे के साथ घुन पीसने की प्रक्रिया न शुरू हो जाये. और यह शंका जायज है.
पेरिस हमले से यूरोप की शरणार्थी नीति एकदम से पलट गयी है. हमलावरों में से कुछ ने जिस तरह से शरणार्थी के रूप में घुसपैठ किया था, वह ‘इसलामोफोबिया’ के बूते राजनीति करनेवालों के लिए हथियार बन चुका है. राष्ट्रपति ओबामा तुर्की, लेबनान, जॉर्डन की सीमाओं पर लाखों की संख्या में भाग कर आये लोगों में से 10 हजार सीरियाई शरणार्थियों को अमेरिका में बसाना चाहते थे, ‘कैपिटल हिल’ में बाधा पैदा करने की रणनीति रिपब्लिकन सांसदों ने शुरू कर दी है. यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष ज्यों क्लाउदे युंकर ने बहुत सुलझी बात कही थी कि हजार शरणार्थियों में से एक आइएस अतिवादी घुसपैठ करता है, तो इसका मतलब यह नहीं कि यूरोपीय संघ अपनी शरणार्थी नीति ही बदल दे. लेकिन युंकर जैसे लोग अल्पमत में हैं. फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी को 2017 का चुनाव दिख रहा है. सरकोजी ने सुझाव दिया कि ग्वांतानामों जैसा कैंप बने, जिसमें चार हजार संदेहास्पद लोगों को डाल दिया जाये. सरकोजी तो यहां तक कह गये कि सिर्फ ईसाई शरणार्थियों को यूरोप में बसाया जाये. ऐसे बयानों का फायदा यूरोप के रंगभेदी और रैडिकल सोच वाले उठायेंगे ही.
जर्मन चांसलर एंजेला मार्केल ने सीरियाई शरणार्थियों को बसाने की सबसे ज्यादा पहल की थी. जर्मनी के पश्चिमी हिस्से में पांच लाख के करीब शरणार्थी बसाये गये, जबकि 10 लाख का लक्ष्य था. मार्कस शोडर, जो बावेरिया में वित्त मंत्री हैं, और मार्केल सरकार में सहयोगी ‘क्रिश्चियन सोशल यूनियन’ की नेता हैं, की शरणार्थी विरोधी राजनीति शबाब पर है. जर्मन फेसबुक पर ‘पेगीदा’ नामक समूह ने शरणार्थियों के विरुद्ध आग लगा रखी है. जर्मनी में ‘अल्टरनेटिव फ्यूर डाॅयचलांड’ जैसी दक्षिणपंथी पार्टी, तेजी से अपनी जमीन तैयार कर रही है.
कहीं ऐसा न हो कि आइएस को धूल में मिला देने का अभियान, नारे और भावनात्मक उफान की भेंट चढ़ जाये. पेरिस हमले के बाद आइएस अपने मकसद में कामयाब रहा है, और यूरोप समेत दुनियाभर में शरणार्थियों को बसाने की मुहिम थम गयी है. आइएस चर्चा में है. यही तो आइएस चाहता था. सीरियाई ठिकानों पर हमले से आइएस का गढ़ ध्वस्त हो सकता हैै. लेकिन उसके रक्तबीज से दुनिया भर में जो आतंकी ‘स्लिपर सेल’ के रूप में फैल गये हैं, उन्हें कैसे मिटाया जा सकता है?
पुष्परंजन
ईयू-एशिया न्यूज के दिल्ली संपादक
pushpr1@rediffmail.com

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