संघ 1949 का वचन याद करे
।। विद्या सुब्रह्मिणयन।। सरदार पटेल ने यह पूर्वशर्त रखी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपना संविधान रचे, जिसमें अन्य बातों के अलावा संघ (जो कि भगवा झंडे की शपथ खाता है) भारतीय राष्ट्रध्वज के प्रति मान प्रदर्शित करे और खुले और शांतिपूर्ण संगठन के रूप में काम करने और राजनीति से परे रहने को प्रतिबद्ध हो. […]
।। विद्या सुब्रह्मिणयन।।
सरदार पटेल ने यह पूर्वशर्त रखी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपना संविधान रचे, जिसमें अन्य बातों के अलावा संघ (जो कि भगवा झंडे की शपथ खाता है) भारतीय राष्ट्रध्वज के प्रति मान प्रदर्शित करे और खुले और शांतिपूर्ण संगठन के रूप में काम करने और राजनीति से परे रहने को प्रतिबद्ध हो. लड़ाई लंबी चली. गोलवलकर संविधान को लिपिबद्ध करने का प्रतिरोध करते रहे, लेकिन जीत अंतत: पटेल की हुई और तब 11 जुलाई 1949 को संघ पर प्रतिबंध उठा लिया गया.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संविधान स्पष्ट रूप से इसका उल्लेख करता है कि राजनीति से दूर रहेगा. स्वयं यह संविधान 1949 में लिखा गया था, क्योंकि सरदार वल्लभभाई पटेल इसके लिए बज़िद थे. वर्ष 2013 की घटनाओं ने भारतीय इतिहास के उस परिच्छेद को पोंछ डाला है. संघ ने भारतीय जनता पार्टी को पूरी तरह अपने ताबे में ले लिया है. उसने प्रधानमंत्री-पद के लिए भाजपा के उम्मीदवार के मामले में पार्टी के अंदरूनी मतभेद खारिज कर दिये हैं. राजनीतिक दृष्टि से इससे बढ़ कर खुल्लमखुल्ला कार्रवाई दूसरी नहीं हो सकती.
संघ हमेशा से भाजपा (और उसके पूर्ववर्ती जनसंघ) का परामर्शदाता रहा है, जिसका आदेश भाजपा के लिए सरासर अनुल्लंघनीय है. बात यह है कि संघ के ही साधनों से भाजपा का निर्माण हुआ था और संघ के चोटी के प्रचारक ही नयी पार्टी की बौद्धिक तथा राजनीतिक पूंजी थे. अपने संविधान में संघ अपने लिए कोई भी राजनीतिक भूमिका स्पष्ट शब्दों में वजिर्त करता है; परंतु वह अपने स्वयंसवकों को वैयक्तिक रूप से अपनी पसंद की किसी भी राजनीतिक पार्टी में शामिल होने की छूट देता है.
इस सुविधा का उपयोग संघ ने जनसंघ और भाजपा में अपने प्रतिनिधि रखने के लिए किया. लालकृष्ण आडवाणी से लेकर नरेंद्र मोदी तक हरेक असरदार भाजपाई नेता संघ की कोख से उपजा है और उसे अनिवार्य रूप से एक निश्चित पाठ्यक्रम को मान कर चलना पड़ता है. दिल्ली और नागपुर के संघ कार्यालयों की तीर्थयात्र और संघ के ‘कुलपति’ (संघ की अपनी शब्दावली में सरसंघचालक) के विवेक का सम्मान करना इस पाठ्यक्रम के अनिवार्य हिस्से हैं.
यह भाजपा और संघ के आपसी संबंधों का अघोषित अंग है कि सरसंघचालक कभी अपने प्रभाव को जाहिर नहीं करेगा. उसकी भूमिका की प्रच्छन्नता वर्ष 1949 में उसके द्वारा दिये गये वचन की दृष्टि से जरूरी थी और ‘हिंदुत्व’ के प्रति प्रबल राजनैतिक विरोध से बचने के लिए भी. वर्ष 1977-80 और 1998-2004 की केंद्रीय सरकारें इसीलिए संभव हो पायीं कि संघ परदे की ओट में रहने को राजी था.
वर्ष 2013 की राजनीतिक घटनावली उल्लेखनीय इसलिए है कि अब संघ को राजनीतिक संगी-साथी जुटाने की भाजपा की आवश्यकता के चलते प्रच्छन्न भूमिका में रहने की जरूरत नहीं रह गयी है. बल्कि दूसरे किसी भी समय की तुलना में, ‘परामर्शदाता’ आज चालक की सीट के अधिक निकट आसीन हो गया है. हाल के इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भाजपा की बागडोर अपने हाथ में लेने की संघ की चेष्टाएं वर्ष 2005 में आडवाणी की पाकिस्तान-यात्र और कराची में मुहम्मद अली जिन्ना के मकबरे में जिन्ना की प्रशंसा में उनके ‘कुफ्र’ भरे भाषण के बाद संघ इतना आग बबूला हो उठा था कि उसने भाजपा के अध्यक्ष-पद से उन्हें हटाने का आदेश जारी कर दिया. यों आडवाणी वर्ष 2009 में प्रधानमंत्री-पद के लिए भाजपा के उम्मीदवार तो बने रहे, लेकिन संघ में उनका जो बेजोड़ स्थान-मान था वह सदा के लिए समाप्त हो गया. भाजपा के इस सिद्धांतकार के महत्वहीन हो जाने की जो प्रक्रिया तब आरंभ हुई, वह अब उनके एकदम अलग-थलग पड़ जाने के साथ पूरी हो चुकी है.
वर्ष 2005 के उस महाटकराव और ‘परामर्शदाता’ द्वारा सरेआम अपनी पदच्युति से उपजे आडवाणी के क्रोध दोनों को उन्हीं के शब्दों से सबसे अच्छी तरह समझा जा सकता है. सितंबर 2005 में चेन्नई में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के अधिवेशन की अंतिम बैठक को संबोधित करते हुए आडवाणी ने कहा कि ‘‘ऐसी छाप पड़ रही है कि उनकी पार्टी संघ की अनुमति के बिना कोई भी निर्णय नहीं ले सकती. हमारा मानना है कि यह धारणा न तो भाजपा के लिए हितकर है, न संघ के लिए ही. संघ को इस बात से चिंतित होना चाहिए कि यह धारणा मनुष्य को रचने-गढ़ने और राष्ट्रनिर्माण के उसके महान ध्येय को बौना बना देगी. भाजपा और संघ दोनों को इस धारणा को निरस्त करने के लिए मनोयोग-पूर्वक काम करना चाहिए.’’
पहले भी अपेक्षाकृत छोटे नेता ‘परामर्शदाता’ से भिड़ चुके थे और उन्हें उसकी कीमत अदा करनी पड़ी थी. मगर आडवाणी तो संघ के चहेते थे और संघ द्वारा जनसंघ को भेजे गये आरंभिक प्रचारकों में से थे. ऐसे बुजुर्ग भाजपाई नेता का संघ को दखलअंदाजी करनेवाला कहना स्पष्टवादिता था, मगर संघ तो हमेशा ही दखलअंदाज रहा है. अपूर्व बात सिर्फ यह कि संघ ने आडवाणी जैसे प्रतिष्ठित और पुराने नेता को पदच्युत कर दिया.
सात साल बाद संघ ने एक नया आदेश निकाला है. इस बार उसका मकसद है एक खास नेता को दोहरी तरक्की देना; और यह काम दो किस्तों में किया गया है. जून 2013 में नरेंद्र मोदी को भाजपा की चुनाव अभियान समिति का प्रधान बनाया गया (जो पद उन्होंने बाद में त्याग दिया) और उसके बाद उन्हें सितंबर 2013 में प्रधानमंत्री-पद के लिए भाजपा का उम्मीदवार नियुक्त किया गया. वर्ष 2005 में तो संघ की भूमिका का अनुमान ही लगाया गया था और उसका प्रमाण स्वयं आडवाणी से मिला था. लेकिन वर्ष 2013 में सारी शर्मो-हया ताक पर रख दी गयी.
आडवाणी, जिन्होंने जून 2013 में मोदी के चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाये जाने के विरोध में पार्टी के सब मुख्य पदों से त्यागपत्र दे दिया था, इस बार संघ के आदेश से झुक गये हैं और यह बात पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने लिखित रूप से स्वीकार की है. भाजपा व संघ के इतिहास में यह ऐसा पहला मौका है. मीडिया के नाम राजनाथ सिंह द्वारा 11 सितंबर के लिखित वक्तव्य में कहा गया, ‘‘श्री मोहन भागवत (संघ के वर्तमान सरसंघचालक) ने श्री आडवाणी के साथ बातचीत की और उनसे प्रार्थना की कि वे भाजपा संसदीय मंडल के निर्णय का सम्मान करें और राष्ट्रीय हित में पार्टी का मार्गदर्शन करते रहें.’’ भाजपा के संसदीय मंडल ने सचमुच आडवाणी से प्रार्थना की; किंतु भागवत की ओर से तो आदेश ही था. शब्द अवश्य नरम थे, मगर संदेश नरम न था. इस तरह 2005 में शुरू हुई सत्ता अधिग्रहण की प्रक्रिया सितंबर 2013 में भावी प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की प्रस्तुति के साथ पूरी और पक्की हो गयी. आडवाणी चाहते थे कि मोदी चुनाव अभियान समिति के प्रधान न हों. परंतु वह चीज हो गयी, जिससे साबित होता है कि उस पहली पदोन्नति का उद्देश्य मोदी के प्रति पार्टी के भीतरी विरोध को क्षीण करने की युक्ति मात्र थी.
अब बात करें 1949 की और संघ द्वारा सरदार पटेल को दिये गये इस वचन की कि संघ अपना संविधान लिखेगा और उसमें अन्य बातों के साथ यह स्पष्ट रूप से कहा जायेगा कि ‘‘संघ की कोई राजनीति नहीं है और पूरी तरह सांस्कृतिक कार्यकलापों को समर्पित रहेगा.’’ (संघ के संविधान का परिच्छेद 4 (ख) – डीआर गोयल) 30 जनवरी 1948 को हुई गांधीजी की हत्या के बाद संघ पर लगाये गये प्रतिबंध को हटाने के लिए सरदार पटेल ने यह शर्त रखी थी कि संघ का एक लिखित संविधान होना चाहिए. संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने गांधीजी की हत्या में संघ के लिप्त न होने का दावा किया और स्वयं पटेल स्पष्टत: मानते थे कि गांधी-हत्या में संघ लिप्त नहीं था. यह बात उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लिखे अपने 27 फरवरी 1948 के पत्र में कही थी और बाद में भी दुहरायी थी. तथापि सरदार पटेल का यह दृढ़विश्वास था कि संघ के ‘हिंसात्मक’ तौर-तरीकों का उस वातावरण के निर्माण में योगदान था जिसमें गांधीजी की हत्या हुई. गोलवलकर ने गांधीजी की हत्या पर आघात व्यक्त करते हुए जो तार नेहरू और पटेल को भेजे थे उनसे स्थिति बदली नहीं.
2 फरवरी 1948 को जारी हुई सरकारी प्रतिबंध अधिसूचना में संघ को गांधीजी की हत्या में उलझाया नहीं गया था. असल में उस अधिसूचना में गांधी-हत्या का कोई उल्लेख नहीं था. उसमें संघ पर लगाया गया आरोप ‘हिंसापूर्वक सरकार के अच्छेदन’ का था- ‘‘अपने व्यवहार में संघ के सदस्य अपने घोषित ध्येयों (हिंदुओं में भाईचारे, प्रेम और सेवा की भावना पनपाना) पर स्थिर नहीं रहे हैं. संघ के सदस्यों ने अवांछनीय और यहां तक कि खतरनाक कार्रवाइयां की हैं.. संघ के सदस्य व्यक्तियों ने आगजनी और हत्या समेत हिंसात्मक कार्य किये हैं और अवैध रूप से शस्त्रस्त्र जमा किये हैं. लोगों को वे आतंकवादी तरीके अपनाने, आग्नेय शस्त्र जुटाने और सरकार के विरुद्ध विद्रोह की भावना निर्माण करने को उकसाते हैं तथा पुलिस व सेना को संगीन अपराध करने के लिए फुसलानेवाले पर्चे बांटते हुए पाये गये हैं. ये कार्रवाइयां लुक-छिप कर की गयी हैं.’’
14 नवंबर 1948 को गृह मंत्रालय ने, जो कि सरकार पटेल के हाथ में था, एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की. उसमें कहा गया था कि गोलवलकर सरकार की इस मांग को नहीं स्वीकार करते कि संघ अपने को सुधारे और वे चाहते हैं कि सरकार संघ पर प्रतिबंध उठा ले. विज्ञप्ति में आगे राज्य सरकारों से मिली सूचनाएं उद्धृत की गयी थीं, जो दरसाती थीं कि संघ से जुड़े व्यक्ति विविध रूपों में और विविध उपायों से ऐसी कार्रवाइयां कर रहे हैं जो राष्ट्रविरोधी हैं और सरकार के प्रति अप्रीति फैलानेवाली तथा हिंसात्मक हैं और संघ देश में ऐसा वातावरण तैयार करने की लगातार कोशिश कर रहा है जो अतीत में भयानक परिणाम उत्पन्न कर चुका है.
इसके पूर्व पटेल ने दो महत्वपूर्ण पत्र लिखे थे. 14 जुलाई 1949 को उन्होंने श्यामाप्रसाद मुखर्जी को उनके द्वारा किये गये संघ के बचाव को अस्वीकार करते हुए लिखा, ‘‘संघ की कार्रवाइयां स्पष्ट रूप से सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए खतरा हैं.. वक्त बीतने के साथ, संघ से जुड़े तबके ज्यादा से ज्यादा उद्धत होते जा रहे हैं और अपनी राजद्रोहात्मक कार्रवाइयां बढ़ाते जा रहे हैं.’’
पटेल का 4 सितंबर का पत्र स्वयं गोलवलकर के नाम था. उसमें पटेल ने हिंदू समाज की सेवा के लिए संघ की प्रशंसा की थी, साथ ही उसकी ‘आपत्तिजनक भूमिका’ का भी उल्लेख किया, जो तब प्रकट हुई जब ‘‘प्रतिहिंसा से सुलगते हुए वे (यानी संघ के लोग) मुसलमानों पर आक्रमण करने लगे.’’ इतना ही नहीं, ‘‘सांप्रदायिक विष की अंतिम परिणति के रूप में देश को गांधी जी के अनमोल जीवन की कुर्बानी देनी पड़ी.’’ पटेल ने कहा कि संघ के प्रति जनता का विरोधभाव तब बहुत बढ़ गया, जब ‘‘संघी लोगों ने गांधीजी की मृत्यु हर आनंद व्यक्त किया और मिठाइयां बांटीं.’’
इस तरह जिस आरोप पर संघ पर प्रतिबंध लगाया वह गांधीजी की हत्या में शरीक होने का आरोप नहीं था. आरोप था हिंसा का और सरकार में जनता की निष्ठा समाप्त करने की कोशिश का. बाद में गांधी-हत्या से किसी भी रूप में जुड़े होने के आरोप से संघ को औपचारिक रूप से बरी कर दिया गया. यही वह चीज थी जिसके कारण पटेल ने यह पूर्वशर्त रखी कि संघ अपना संविधान रचे, जिसमें अन्य बातों के अलावा संघ (जो भगवा झंडे की शपथ खाता है) भारतीय राष्ट्रध्वज के प्रति मान प्रदर्शित करे और खुले और शांतिपूर्ण संगठन के रूप में काम करने और राजनीति से परे रहने को प्रतिबद्ध हो. लड़ाई लंबी चली. गोलवलकर संविधान को लिपिबद्ध करने का प्रतिरोध करते रहे, लेकिन जीत अंतत: पटेल की हुई और तब 11 जुलाई 1949 को संघ पर प्रतिबंध उठा लिया गया. (अनुवाद : नारायण दत्त. साभार : ‘हिंदू’, 8 अक्तूबर 2013)