दिल्ली और आम आदमी पार्टी
।। एमजे अकबर।।(वरिष्ठ पत्रकार) राजनीति का असल रंगमंच राजधानी ही होती है. दिल्ली या लंदन में मेयर के चुनाव को भी किसी बड़े राज्य के चुनाव जितना तवज्जो दिया जाता है. ऐसे में क्या आश्चर्य है कि ब्रिटेन में बोरिस जॉनसन जैसा एक राजनीतिक पूंजीपति राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने की हसरत रखता है! घर […]
।। एमजे अकबर।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
राजनीति का असल रंगमंच राजधानी ही होती है. दिल्ली या लंदन में मेयर के चुनाव को भी किसी बड़े राज्य के चुनाव जितना तवज्जो दिया जाता है. ऐसे में क्या आश्चर्य है कि ब्रिटेन में बोरिस जॉनसन जैसा एक राजनीतिक पूंजीपति राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने की हसरत रखता है! घर की बात करें, तो हर लोकतांत्रिक मानदंड से शीला दीक्षित को अपनी पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होना चाहिए था, बजाय चौथी बार एक विस्तारित नगरपालिका के लिए दावेदारी पेश करने के. लेकिन, शीला दीक्षित कांग्रेस से हैं, जहां हर भूमिका पर वैकेंसी का बोर्ड लग सकता है, सिवाय एक के.
अगर अरविंद केजरीवाल लखनऊ या मुंबई से भ्रष्टाचार मिटाने का संकल्प लेते, तो वे एक साहसी, मगर गुमनाम सिपाही जैसे होते. दिल्ली ने उनके मकसद को जरूरी मीडिया कवरेज प्रदान करने में अपनी भूमिका निभायी है. केजरीवाल का उदय कॉमनवेल्थ घोटाले से लेकर यूपीए के मंत्रियों की खुली लूट की अनवरत खबरों से गुस्सायी दिल्ली की जनता के स्वत: स्फूर्त आंदोलन के गर्भ से हुआ है.
किसी भी बड़े महानगर की तरह, दिल्ली कई घने बसे शहरी गांवों का समुच्चय है. यहां की जनता सत्ताधारी अभिजात्यों के काफी नजदीक रहती है. वे साधारण लोग, जिनकी जेब बस में सवारी से ज्यादा वहन नहीं कर सकती है, हर दिन दुनिया की सबसे महंगी कोठियों से होकर गुजरते हैं. इन कोठियों में शानो-शौकत में लिपटे राजनेता रहते हैं. दुनिया में दिल्ली के अलावा एक भी ऐसी लोकतांत्रिक राजधानी नहीं है, जो अपने मंत्रियों और सांसदों को इतना पतनशील जीवन मुहैया कराती हो. बस से दफ्तर जा रहे लोगों को यह दृश्य रोज मथता है. इसलिए भी, क्योंकि वे इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं कर सकते.
अरविंद केजरीवाल ने अगला कदम उठाने, आंदोलन को संस्था में तब्दील करने का कठिन काम करने की जिद दिखायी है. जबकि वे समर के बीच में हैं, उन्हें इस बात का ज्ञान हो रहा है कि सिद्धांत को जमीन पर उतारना कितना मुश्किल होता है. वे क्षुब्ध मतों को अपने पक्ष में कर सकते हैं, क्योंकि उनका उदय ही क्षोभ के बादलों के बीच से हुआ है. लेकिन क्या वे इस वोट को ‘जवाब के वोट’ में बदल सकते हैं? जब शोर शांत पड़ जायेगा, लड़ाई लड़ी और जीती जायेगी, तब दिल्ली को एक ऐसी सरकार की जरूरत होगी, जो बिजली बिलों में कटौती करे, वह भी बिजली कंपनी को भगाये बिना. जो व्यापार के परंपरागत तंत्र को नष्ट किये बगैर प्याज की कीमतों को कम करे. अगर केजरीवाल इतने कटु नहीं होते, तो अच्छा होता. लेकिन यह शायद कुछ ज्यादा उम्मीद करना होगा. वे कर्णभेदी आवाज के बल पर ही इतनी दूर आये हैं. झाड़ू में कोई हल नहीं छिपा है, यह सिर्फ गुस्से का हथियार है. केजरीवाल हारें या जीतें, अगले चुनाव में उन्हें अपना चुनाव चिह्न् पेन मांगना चाहिए.
उनकी समस्याओं को आसानी से समझा जा सकता है. उन्हें उच्च मानकों पर परखा जा रहा है, शायद इसलिए क्योंकि वे दूसरों से ऐसी ही मांग कर रहे हैं. भाजपा और कांग्रेस परंपरागत राजनीति में माहिर हैं, क्योंकि उन्होंने ही इन परंपराओं को बनाया है. केजरीवाल के इनहाउस (घरेलू) चुनावी सर्वेक्षणों ने उन्हें जरूर बताया होगा कि उन्हें मुसलिम मतदाताओं का पर्याप्त वोट नहीं मिल रहा है और यह पहले और तीसरे स्थान के बीच का फर्क पैदा कर सकता है. किसी नजदीकी मुल्ला तक पहुंचने की केजरीवाल की हड़बड़ी के पीछे यही तर्क हो सकता है. वोट बैंक के परंपरागत बिचौलियों की ओर रुख करना उनकी गलती थी. केजरीवाल के पास अब भी वह करने का वक्त है, जो उन्होंने अब तक नहीं किया है- सीधे मुसलिम युवाओं से अपील करना और कहना कि भ्रष्टाचार जाति-धर्म की परवाह किये बगैर सबको समान तरीके से चोट पहुंचाता है.
दिल्ली का चुनाव अभी भी खुला है. भाजपा और कांग्रेस में टकराहट शीर्ष स्तर पर होती है. कैडर और खांटी समर्थकों के स्तर पर पुख्ता आधार से वंचित किसी भी आंदोलन के साथ जो समस्याएं होती हैं, आम आदमी पार्टी उससे दोचार हो रही है. आदर्शवाद से प्रेरित होकर साथ आनेवाले समर्थक यह देखते हैं कि चुनाव तो गर्द से लिपटा हुआ या उससे भी कुरूप है. दिक्कत यह है कि केजरीवाल के पास इतना वक्त नहीं है कि वे युवाओं को बता सकें कि आप आदर्श की खोज में व्यावहारिकता को तिलांजलि नहीं दे सकते. केजरीवाल बढ़त की महीन रेखा के करीब मंडरा रहे हैं, लेकिन परंपरागत पार्टियों के पास अधिक समर्थन है, क्योंकि वे सरकार बनाने की अपनी क्षमता में यकीन पैदा करने में ज्यादा सफल हो रहे हैं. वैसे समर्थन का ग्राफ भविष्य में स्थिर नहीं रहेगा. यह तीन हिस्सों में बंटेगा.
सफलता से पूंजी का लाभ होगा. क्या विफलता पर प्राण की मांग की जायेगी? खासकर तब, जब आपके पास जिलाये रखनेवाला पार्टी का ढांचा और स्थिर समर्थक वर्ग न हो! आम आदमी पार्टी बुलबुला नहीं है, लेकिन इसमें तब तक सघनता नहीं आयेगी, जब तक यह चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं करती. मुङो नहीं पता, इस पार्टी का सरकार में प्रदर्शन कैसा होगा, लेकिन मैं यह जरूर कह सकता हूं कि दिल्ली को विपक्ष के तौर पर इस पार्टी की जरूरत है.