ये मेरा घर ये तेरा घर

सर्दियां दस्तक दे चुकी हैं. धूप के छोटे-छोटे टुकड़े बालकनी के फर्श पर गिरते हैं, तो बहुत अच्छे लगते हैं. खाना खाने के बाद कुछ आराम की सोच लेट जाती हूं कि अचानक एक आवाज सुनायी देती है. आवाज बहुत करुण है जैसे कोई विलाप कर रहा हो. मेरी बालकनी पर आकर कोई क्यों रो […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 20, 2015 1:28 AM

सर्दियां दस्तक दे चुकी हैं. धूप के छोटे-छोटे टुकड़े बालकनी के फर्श पर गिरते हैं, तो बहुत अच्छे लगते हैं. खाना खाने के बाद कुछ आराम की सोच लेट जाती हूं कि अचानक एक आवाज सुनायी देती है. आवाज बहुत करुण है जैसे कोई विलाप कर रहा हो. मेरी बालकनी पर आकर कोई क्यों रो रहा है? एक चिड़िया बालकनी में ऊपर की तरफ लगे शीशे को खटखटा रही है. यह किस चिड़िया की आवाज है? महानगर के इस शोर में चिड़ियों की आवाज पहचानना भी कितना मुश्किल है.

बचपन में तो चिड़िया की आवाज सुनी नहीं कि आंखें छतों, मुंडेरों, पेड़, पौधे, घर के मोखों में ढ़ूंढ़ती थीं कि अरे, तोते की आवाज कहां से आयी! बुलबुल कहां चहकी! मकान जितने ऊंचे होते जाते हैं, प्रकृति से उतना ही संपर्क टूटता जाता है. हम चाहे पर्यावरण सुरक्षा, प्रकृति से कनेक्ट होने और पेड़ बचाने की जितनी बात करें.

शीशे से टकरा कर कहीं उसकी चोंच घायल न हो जाये. आखिर इसे किस बात का दुख है. मैं उसे भगाने जाती हूं, वह फिर आ धमकती है. उसे पहचानती हूं- अरे यह तो फाख्ता है. बचपन में इसे पिड़कुड़िया और कबूतर की बहन कहते थे. आजकल केबल के दूर-दूर तक फैले तारों पर अकसर यह अकेली बैठी दिखती है. जैसे समाधि में हो.

हर रोज का नियम हो चला है उसका. आखिर चाहती क्या है. शायद अपने परिवार से बिछड़ गयी है. अपने बच्चों को या साथी को पुकार रही है- कहां हो, कहां हो. देखो मैं यहां हूं, जल्दी आओ. या मुझे ही कुछ संदेश देना चाहती है कि तुम तो मजे में अपने घर में आराम कर रही हो और देखो मैं कैसी भटक रही हूं. उसके मुंह में एक तिनका दबा है. लगता है यह घोसला बनाने की जगह ढूंढ़ रही है. इसे घर बनाने के लिए कोई पेड़ नहीं मिला क्या? या कि बाहर के प्रदूषण से परेशान होकर यह किसी ऐसी जगह घोसला बनाना चाहती है, जहां चैन से सांस ले सके. आॅक्सीजन की कमी के कारण इसके बच्चों को कोई परेशानी न हो. वे इनसानी बच्चों की तरह वायु प्रदूषण के कारण तरह-तरह के रोगों की शिकार न हों.

चाहे चिड़िया हो या जानवर, सबको एक ठिकाना चाहिए, एक घर चाहिए. एक सुरक्षित और शांतिपूर्ण घर की चाहत हर एक को होती है. मगर फाख्ता यह नहीं जानती कि जिस शीशे पर घर बनाने की सोच रही है, वहां घर बन ही नहीं सकता. उस पर लगी छड़ें इतनी पतली हैं कि घोसले को चारों ओर से नहीं संभाल सकतीं. हालांकि, यहां बाज और बिल्ली के आने का खतरा नहीं है. मगर यह बात मैं उसे कैसे समझाऊं. मेरे उसके बीच भाषा और संवाद की अलंघनीय ऊंची दीवार जो है.

समझ में नहीं आता क्या करूं! क्या जब भी उसकी आवाज सुनाई दे, तो उसे भगा दूं, जिससे कि वह समझ जाये कि यहां उसका कोई स्वागत नहीं है. इस घर में रहनेवाले उसे नहीं चाहते. हो सकता है कि वह मुझे शाप दे. मेरे मनुष्य होने को कोसे कि मनुष्य तो होते ही ऐसे हैं. मगर मैं चाहती हूं कि वह ऐसी जगह घोसला बनाये, जहां वह और उसके बच्चे सुरक्षित रहें. क्या रीयल स्टेट सेक्टर कभी चिड़ियों के लिए घर बना सकता है? अगर बनाये भी, तो बेचारी चिड़ियों के पास पैसे कहां से आयेंगे जो उसे खरीद लें!

क्षमा शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार

kshamasharma1@gmail.com

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