लेखन-धर्म के पालन का अभिनंदन

असंवेदनशीलता और असहिष्णुता के खिलाफ जो मुहिम रचनाकारों ने चलायी है, वह हमारे समय और समाज की महती आवश्यकता है. इस मुहिम के निहितार्थों को हमारी सत्ता को समझना ही होगा. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इलाहाबाद की एक सभा में हिंदी के मूर्धन्य कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ को माला भेंट करते हुए […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 20, 2015 1:29 AM

असंवेदनशीलता और असहिष्णुता के खिलाफ जो मुहिम रचनाकारों ने चलायी है, वह हमारे समय और समाज की महती आवश्यकता है. इस मुहिम के निहितार्थों को हमारी सत्ता को समझना ही होगा.

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इलाहाबाद की एक सभा में हिंदी के मूर्धन्य कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ को माला भेंट करते हुए एक चीनी लोककथा सुनायी थी. कथा एक राजा के दो पुत्रों के बारे में थीö. एक पुत्र बुद्धिमान था और दूसरा मंदबुद्धि. राजा ने अपने मंदबुद्धि बेटे से कहा कि साम्राज्य के अलावा उसके पास उसे देने के लिए और कुछ नहीं है और उसने राज्य मंदबुद्धि बेटे को सौंप दिया. फिर राजा बुद्धिमान बेटे से कहा, तुम्हें जीवन में और ऊंचा उठना है, बहुत कुछ प्राप्त करना है, तुम्हें कवि बनना चाहिए. यह कहानी सुना कर पंडित नेहरू अपनी जगह से उठे और अपने गले की माला उतार कर महाकवि निराला के चरणों में रख दी. सभा ने तालियां बजा कर साहित्य के समक्ष नतमस्तक होती सत्ता का अभिनंदन किया था.

नेहरू की 126वीं जयंती मना रहे देश में सत्ता और साहित्य के बीच चल रही खींच-तान में इस घटना का याद आना अर्थवान है. दुनियाभर में साहित्य को सत्ता से ऊंचा माना गया है. हमारे यहां तो राजा छत्रसाल ने कवि भूषण की पालकी को कंधों पर उठा कर साहित्य के ऊंचे स्थान का उदाहरण प्रस्तुत किया था. निराला के चरणों में माला रख कर नेहरू ने उसी परंपरा की महत्ता को रेखांकित किया. नेहरू ने ही साहित्य अकादमी की नींव रखी थी, और इसके पहले अध्यक्ष भी वही थे. तब उन्होंने कहा था, ‘यदि प्रधानमंत्री नेहरू भी अकादमी के संचालन में हस्तक्षेप करेंगे, तो मैं उसे स्वीकार नहीं करूंगा.’ पंडित नेहरू के भीतर कहीं एक साहित्यकार भी था. नोबेल विजेता पर्ल बक ने कहा था, ‘नेहरू यदि राजनेता न होते, तो विश्व उन्हें एक साहित्यकार के रूप में याद करता.’

नेहरू भी इस बात को मानते होंगे कि साहित्य एक विरोधात्मक गतिविधि है. साहित्यकार अपनी कलम से उन भावनाओं को अभिव्यक्ति देते हैं, जो जीवन में अनसुनी रह जाती हैं. व्यवस्था में जो कुछ गलत है, उसके खिलाफ उठायी गयी आवाज ही लेखन है. इस दृष्टि से देखें, तो असहमति लेखक के डीएनए में है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी इसी परिप्रेक्ष्य में रेखांकित होती है. यही स्वतंत्रता लेखन को ताकतवर बनाती है. इसीलिए साहित्य अकादमी जैसी संस्थाओं की स्वायत्तता महत्वपूर्ण है ताकि ये संस्थाएं लेखन की मूल प्रकृति-प्रवृत्ति का सम्मान करते हुए उचित के पक्ष में और अनुचित के विरोध में आवाज उठाती रहेंगी.

ऐसे में, जब केंद्रीय साहित्य अकादमी के अध्यक्ष ने कलबुर्गी जैसे वरिष्ठ साहित्यकार की हत्या की भर्त्सना करने को अकादमी की परंपरा के विरुद्ध बताया था, तो देश के बौद्धिक समाज में दुख और क्षोभ का व्यापना स्वाभाविक था. सारे मुद्दे पर चुप रह कर अकादमी अपने होने की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लगा रही थी, इसलिए लेखकों ने अकादमी के पुरस्कार लौटाने के सांकेतिक विरोध का रास्ता अपनाया. लेकिन सत्ता को यह सब स्वीकार नहीं था. उसने एक बीमार मानसिकता के खिलाफ चले इस अभियान को एक षड्यंत्र समझा, नकली विद्रोह घोषित किया.

जर्मन भाषा के साहित्यकार फ्रांज काफ्का ने कहा था, ‘किताबें हमारे भीतर जमे समुद्र के लिए कुल्हाड़ी होनी चाहिए.’ देश के रचनाकारों द्वारा प्रतीकात्मक विरोध में लौटाये सम्मानों ने ऐसी ही एक कुल्हाड़ी का काम किया. सत्ता भले ही इसे प्रायोजित और राजनीति-प्रेरित बताती रहे, पर समाज के भीतर जमे समुद्र में इसने हलचल मचा दी है. इसका उद्देश्य असंवेदनशीलता का विरोध करना ही नहीं, समाज-सत्ता की संवेदनशीलता को जगाना भी है. इस कार्य में आंशिक सफलता तो मिली है. इन रचनाकारों का अभिनंदन होना चाहिए. उन्होंने लेखन-धर्म का पालन किया है और उचित के पक्ष में खड़े होने का साहस दिखाया है.

किसी लेखक का ‘एक्टिविस्ट’ होना जरूरी नहीं, पर यदि वह एक्टिविस्ट भी है तो कोई बुराई नहीं है. एक्टिविस्ट होकर लेखक वही सब करता है, जो वह अपनी कलम से करना चाहता है. इसलिए यह तर्क बेमानी है कि लेखक को सिर्फ अपनी कलम का ही उपयोग करना चाहिए. असहिष्णुता के खिलाफ तीन-तीन बार चेतावनी देनेवाले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा कि ‘सम्मानों का आदर किया जाना चाहिए. संवेदनशील मस्तिष्क समाज की कुछ घटनाओं से विचलित हो जाते हैं, पर इस चिंता की अभिव्यक्ति संतुलित होनी चाहिए. भावनाएं बुद्धि पर हावी नहीं होनी चाहिए.’ राष्ट्रपति की बात का सम्मान होना चाहिए. पर यह सम्मान सत्ता की तरफ से भी अपेक्षित हैö. सत्ता को समझना होगा कि वह क्या और कहां गलती कर रही है. असंवेदनशीलता और असहिष्णुता के खिलाफ जो मुहिम रचनाकारों ने चलायी है, वह हमारे समय और समाज की महती आवश्यकता है. इस मुहिम के निहितार्थों को हमारी सत्ता को समझना ही होगा.

विश्वनाथ सचदेव

वरिष्ठ पत्रकार

navneet.hindi@gmail.com

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