।।रविभूषण।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
हिंदी भाषा-साहित्य के छात्रों-अध्यापकों में फैलती जा रही उदासीनता-निष्क्रियता चिंताजनक है. अभी हाल में रामविलास शर्मा की जन्मशती पर अनेक कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में कोई आयोजन-कार्यक्रम नहीं हुआ, जबकि भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला और रामचंद्र शुक्ल पर उन्हें पढ़े बगैर छात्रों-अध्यापकों का काम नहीं चलता. हिंदी प्रदेश के कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में ऐसा माहौल पहले नहीं था. वैचारिक दरिद्रता किसी भी समाज में अचानक नहीं आती.
महावीर प्रसाद द्विवेदी की 150वीं वर्षगांठ पर चंद अपवादों को छोड़ कर लगभग सन्नाटा है. विरासत का विस्मरण भविष्य-निर्माण में बाधक है. तात्कालिकता की कोई वैचारिकता नहीं होती. यह फिरंट पूंजी का कमाल है, जिसने हमारे सोच-विचार को प्रभावित-अनुकूलित कर सब कुछ को तत्काल में सीमित कर रखा है. द्विवेदी जी ने साहित्य को जब ‘ज्ञान-राशि का संचित कोष’ कहा था, तब उनके समक्ष साहित्य की महती भूमिका थी. साहित्य का क्षेत्र सीमित-संकुचित नहीं है. यह मान कर चलना गलत नहीं होगा कि जिनके जीवन में साहित्य का कोई स्थान नहीं है, वे संकीर्ण सोच वाले महानुभाव हैं. जो शिक्षण-संस्थाएं सीमित सोच-विचार के दायरे में फलने-फूलने का भ्रम पालती हैं, वे समाज का विकास नहीं करतीं. आज यह सवाल बेहद जरूरी है कि सामाजिक विकास और उन्नयन में शिक्षण-संस्थाओं की कैसी-कितनी भूूमिका है! द्विवेदी जी और उनके द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ पत्रिका की भूमिका पर विचार आज किसी भी लेखक-संपादक के लिए बेहद जरूरी है क्योंकि 21वीं सदी का भारत अब भी बेहाल-बदहाल है.
परतंत्र भारत में देश की चिंता कवियों-लेखकों-संपादकों को थी. आज देश की चिंता कम है. भारतेंदु ‘भारत-दुर्दशा’ से चिंतित-व्यथित थे. द्विवेदी जी ने 19वीं सदी के अंत (1897) में ‘भारत दुर्भिक्ष’ कविता लिखी. उनके सामने समस्त देश था- ‘बालक, युवा, जरठ नारी-नर/ भूख-भूख कहि गावें/ अविरल अश्रुधार आंखिन/ ते बारंबार बहावें/.’ आज देश की ऐसी चिंता कितने कवियों-लेखकों-संपादकों में है? यह सर्वविदित है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी आधुनिक हिंदी के निर्माता-विधाता थे. लंबे समय तक उन्हें ‘भाषा-परिष्कारक’ के रूप में ही देखा गया. हिंदी प्रदेश में नवीन सामाजिक चेतना का प्रचार-प्रसार उनका लक्ष्य था. हिंदी प्रदेश आज भी जड़ता, रूढ़िवादिता, सामंती सोच-संस्कार और जातिवाद-संप्रदायवाद के दलदल में फंसा है. द्विवेदी जी ने जिस समय रेलवे की नौकरी छोड़ी, उनकी मासिक तनख्वाह दो सौ रुपये थी. नौकरी छोड़ कर वे ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक बने. भारतेंदु हरिश्चंद्र के निधन के एक वर्ष पूर्व 1884 में चिंतामणि घोष ने इंडियन प्रेस की स्थापना की थी. इसी प्रेस से 1900 ईसवी में ‘सरस्वती’ पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ. जनवरी 1903 से दिसंबर 1920 तक द्विवेदी जी इस पत्रिका के संपादक रहे. हिंदी साहित्य के युग-निर्माताओं के पास विश्वविद्यालय की डिग्रियां नहीं थीं. द्विवेदी जी ने मैट्रिक तक की शिक्षा प्राप्त की थी. ‘सरस्वती’ का संपादक बनने के बाद उन्होंने जो चार सिद्धांत बनाये, उनमें एक ज्ञान-वृद्धि हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहना भी था. रामविलास शर्मा के पहले डॉ उदयभानु सिंह ने द्विवेदी जी और उनके युग पर पुस्तक लिखी थी (डी लिट की थीसिस), पर इस पुस्तक से द्विवेदी-युग की बात तो दूर, द्विवेदी जी को भी सही अर्थो में नहीं जाना जा सकता था. डॉ रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ (1977) के बाद द्विवेदी जी का वास्तविक महत्व सामने आया. आज अगर हिंदी के अधिसंख्य प्रोफेसर रामविलास शर्मा की जन्मशती और द्विवेदी जी की 150वीं वर्षगांठ पर खामोश और निष्क्रिय हैं, तो क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वे बौद्धिक चेतना से शून्य न सही दूर हैं!
महावीर प्रसाद द्विवेदी (6 मई 1864-21 दिसंबर 1938) को प्रेमचंद ने ‘सच्च युग-प्रवर्तक’ कहा. द्विवेदी जी की 70वीं वर्षगांठ बनारस में मई 1933 में मनायी गयी थी. मई 1933 के ‘हंस’ का विशेषांक प्रेमचंद ने उन पर निकाला. प्रेमचंद ने उनमें ‘क्रांति लाने की विलक्षण क्षमता’ देखी थी. आज क्रांति की जरूरत है या नहीं? क्रांति लाने की ‘विलक्षण’ न सही, सामान्य क्षमता भी किस लेखक-संपादक में है? प्रेमचंद ने उनके जीवन को ‘साहित्य साधना और तप का जीवन’ का जीवन कहा है. राजेंद्र यादव के निधन के बाद राजकिशोर ने उनके नाम पर ‘यादव-युग’ की बात कही है. राजेंद्र यादव का जीवन साधना और तप का जीवन नहीं था.
द्विवेदी जी का ज्ञान-विस्तार हमें चकित करता है. द्विवेदी जी सात भाषाओं-हिंदी, उर्दू, संस्कृत, मराठी, गुजराती, बांग्ला और अंगरेजी के जानकार थे. ज्ञानपरक साहित्य के निर्माण और विकास में उनकी बड़ी भूमिका है. उनकी चिंता में मात्र साहित्य नहीं था. सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक सरोकार उनके बड़े थे. आज इतना बड़ा सरोकार न किसी लेखक का है न किसी राजनेता का. किसी शिक्षण संस्था का भी नहीं है. उन्होंने साहित्य को व्यापक रूप में देखने-समझने की दृष्टि दी है. आज अनेक लेखकों-संपादकों को साहित्येतर विषयों का अधिक ज्ञान नहीं है. समकालीन भारत के अर्थतंत्र को समझने के लिए द्विवेदी जी ने अर्थशास्त्र का गंभीर अध्ययन किया. राजनीति, अर्थशास्त्र, आधुनिक विज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र का गंभीर अध्ययन कर उन्होंने हमारी ज्ञान-चेतना विकसित की. किशोरी दास वाजपेयी ने उन्हें ‘ महान ज्ञान राशि’ कहा है. द्विवेदी जी ने संगीत से संबंधित कई लेख लिखे. आधुनिक युग में जो प्राचीन विधाएं और कलाएं ह्रास की ओर जा रही थीं, लुप्त हो रही थीं, उस ओर उन्होंने ध्यान दिया-दिलाया. साहित्य उनके लिये कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, जीवनी, संस्मरणादि तक ही सीमित नहीं था. उनके पहले हिंदी में अर्थशास्त्र पर किसी ने पुस्तक नहीं लिखी थी. 1908 में प्रकाशित द्विवेदी की ‘संपत्ति शास्त्र’ अर्थशास्त्रियों के लिए नहीं सामान्य व्यक्तियों के लिए लिखी गयी पुस्तक है. उन्होंने संपत्ति शास्त्र का ‘गहरा संबंध’ शासन, राजकीय व्यवस्था और व्यापार से जोड़ा है. चार वर्ष पहले यह पुस्तक मैनेजर पांडेय की प्रस्तावना के साथ प्रकाशित हुई है. अभी तक इस पुस्तक पर व्यापक विचार नहीं हुआ है. द्विवेदी जी का विस्मरण हिंदी भाषा, साहित्य और समाज के लिए घातक है. उन्हें याद न करना अपराध और कृतघ्नता है.