कैसी विडंबना है कि आज विद्यालयों में अंगरेजी भाषा की तोता-रटंत पढ़ाई नर्सरी से ही आरंभ हो जाती है. बड़े-बड़े डिग्रीधारकों और स्नातकों को भी हिंदी की वर्णमाला और हिंदी की गिनती नहीं आती. बच्चे हिंदी की शब्दावली से पूर्णत: अनभिज्ञ होते जा रहे हैं, उन्हें नाक-कान-गला नहीं, बल्किनोज-इयर-थ्रोट बताओ, तब समझते हैं. आप कहीं भी देख लें, 99 फीसदी लोग अंगरेजी में हस्ताक्षर करते हैं, हिंदी में नहीं. आज अंगरेजी पत्रिकाओं की मांग हिंदी से अधिक है. हमारा दुर्भाग्य है कि हम एक ऐसे देश में पैदा हुए हैं, जहां हिंदी के पक्षधरों की संख्या दिन पर दिन गिरती जा रही है.
हिंदी को 14 सितंबर 1949 को राजभाषा घोषित करते समय हमारे राजनेताओं ने क्या कभी सोचा होगा कि हमारे समस्त देशवासी हिंदी को उचित सम्मान नहीं दे सकेंगे? ऐसा भी दिन आयेगा, जब हम राजभाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में सच्चे मन से ग्रहण नहीं कर सकेंगे. ऐसे में, अमिताभ बच्चन साधुवाद के पात्र हैं कि वह अपने टीवी कार्यक्रम ‘केबीसी’ में विशुद्ध हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं. जाने-माने कमेंटेटर जसदेव सिंह, पूर्व रेडियो उद्घोषक अमीन सयानी व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू की लच्छेदार हिंदी भी सराहनीय है.
हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी भाषा के प्रेमी रहे हैं. विदेशों में भी सम्मान पानेवाली हिंदी आज अपने ही देश में बेगानी होती जा रही है. हिंदी इतनी उदार है कि सारी भाषाओं को आत्मसात कर सकती है. बस आवश्यकता है इसे सच्चे मन से अपनाने की और सम्मान देने की. हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़ा मना कर रस्म अदायगी तो आसान है, लेकिन जब तक हम हिंदी बोलने-लिखने में गर्व महसूस नहीं करेंगे, तब तक हिंदी उपेक्षित होती रहेगी. प्रबोध चौधरी, मालकेरा, कतरासगढ़