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जनमत सर्वेक्षण पर आगे की राह

।। योगेंद्र यादव ।। (चुनाव विश्‍लेषक) चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों को प्रतिबंधित करना, मर्ज से भी ज्यादा खतरनाक दवा है. पहले से ही चुनाव से 48 घंटे पहले से लेकर आखिरी मत पड़ने तक चुनाव सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध है. किसी तरह की चालबाजी से बचने के लिए यह पर्याप्त व्यवस्था है. जनमत सर्वेक्षण पर मौजूदा बहस […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 12, 2013 4:35 AM

।। योगेंद्र यादव ।।

(चुनाव विश्‍लेषक)

चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों को प्रतिबंधित करना, मर्ज से भी ज्यादा खतरनाक दवा है. पहले से ही चुनाव से 48 घंटे पहले से लेकर आखिरी मत पड़ने तक चुनाव सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध है. किसी तरह की चालबाजी से बचने के लिए यह पर्याप्त व्यवस्था है.

जनमत सर्वेक्षण पर मौजूदा बहस को एक नायाब अवसर के रूप में देखना चाहिए. कांग्रेस की प्रतिक्रिया भले ही खिसियानी बिल्ली खंभा नोचेवाली कहावत को चरितार्थ करती है, लेकिन इस मुद्दे को सिर्फ कांग्रेस की घबराहट समझ कर नजरअंदाज करना नासमझी होगी. आज इस मुद्दे पर एक समझदार नीतिगत हस्तक्षेप की संभावना है.

इस नये हस्तक्षेप से पहले तीन बातें गांठ बांधनी होंगी. पहला, जनमत का व्यवस्थित संग्रहण आधुनिक लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है. भारत जैसे असमानता से भरे देशों में जनमत का वैज्ञानिक सैंपल सर्वेक्षण उन गिनेचुने रास्तों में से एक है, जिससे गरीब और वंचित जनता की आवाज दर्ज हो सकती है. फिलहाल जनता के मिजाज पर निगरानी रखने का सबसे बेहतर तरीका यही है. इसलिए चुनावी दौड़ पर निगाह रखने के लिए चुनाव सर्वेक्षणों की जरूरत बनी रहेगी.

दूसरा, इसमें कोई शक नहीं कि चुनाव सर्वेक्षण के परिणामों को सार्वजनिक करने से चुनावी दौड़ प्रभावित होती है. जाहिर है सिर्फ सर्वे के दम पर कोई चुनाव जीतता या हारता नहीं है. लेकिन, इस छोटे तीर का घाव गंभीर होता है. जो पार्टी सर्वे में आगे दिखती है, उसे कुछ अतिरिक्त समर्थन मिल जाता है.

यह छोटा सा अंतर कड़े मुकाबले में नतीजों को प्रभावित कर सकता है. मतदाताओं से भी ज्यादा चुनाव भविष्यवाणी पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल को प्रभावित करती है, जो चुनाव प्रचार के दौरान बड़ा अंतर पैदा करता है. सर्वे पर गुस्सा इस वैध चिंता की अवैध अभिव्यक्ति होती है.

आखिरी बात, भारत में चुनाव सर्वेक्षण पेशेवर, वैज्ञानिक और पूर्वाग्रह से मुक्त सर्वेक्षणों के उच्च मानकों पर खरे नहीं उतरे हैं. समस्या यह नहीं है कि सर्वेक्षण आधारित भविष्यवाणियां गलत होती हैं. देखा जाये, तो भारतीय चुनाव सर्वेक्षणों का रिकॉर्ड कुल मिला कर अच्छा रहा है. कम से कम ड्राइंग रूम या न्यूज रूम में बैठ कर कयास लगाने से बेहतर संकेत सर्वे से मिलते रहे हैं.

कुछ प्रतिष्ठित चुनावी सर्वेक्षकों को छोड़ दें, तो भारतीय चुनावी सर्वेक्षणों की असल समस्या उनकी अपारदर्शिता और गैरपेशेवराना रवैया है. दिक्कत की बात यह है कि आम लोगों, यहां तक कि मीडिया के लोगों में भी इस बात की पूरी समझ नहीं है कि चुनाव परिणाम उन्हें क्या बता सकते हैं, क्या नहीं बता सकते हैं! सर्वेक्षकों के बढ़ाचढ़ा कर किये गये दावे, जो काले जादू से कम नहीं होते, स्थिति को और बिगाड़ देते हैं.

सर्वेक्षण एजेंसियों और मीडिया द्वारा सर्वेक्षण के लिए अपनायी गयी क्रियाविधि की मूलभूत जानकारी देने से भी इनकार करना, समस्याओं को और जटिल बना देता है. असली और फरेबी सर्वेक्षणों को अलगाने का कोई तरीका नहीं है. पिछले कुछ वर्षो में फरेबी सर्वेक्षणों का अनुपात बढ़ा है.

इसलिए कांग्रेस या भाजपा का मकसद चाहे, जो भी हो, चुनाव सर्वेक्षण के व्यापार में हस्तक्षेप की मांग करना पूरी तरह अतार्किक नहीं है. असल सवाल है, कि सबसे सही और प्रभावशाली हस्तक्षेप क्या होगा?

दुर्भाग्य से ज्यादातर सुधारकों के पास इस सवाल का जवाब देने के लिए तो धैर्य है, इस समस्या की समझ है. इसलिए वे जल्दबाजी में चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों पर पूर्ण प्रतिबंध या अधिसूचना जारी होने के दिन से उन पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हैं. दुखद बात यह है कि कई महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक सुधार कार्यकर्ता और खुद चुनाव आयोग भी इस अतार्किक सुझाव के पक्ष में दिखते हैं.

चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों को प्रतिबंधित करना, मर्ज से भी ज्यादा खतरनाक दवा है. पहले से ही चुनाव से 48 घंटे पहले से लेकर आखिरी मत पड़ने तक चुनाव सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध है. किसी तरह की चालबाजी से बचने के लिए यह पर्याप्त व्यवस्था है.

प्रचार की पूरी अवधि में सर्वेक्षणों पर पूर्ण प्रतिबंध कानून और संविधान की कसौटी पर नहीं टिकेगा. यह समझना मुश्किल है कि ऐसे प्रतिबंध को कैसे संविधान के तहत अभिव्यक्ति की आजादी पर युक्तियुक्त प्रतिबंध ठहराया जा सकता है? यूं भी इसे लागू करना काफी कठिन होगा.

या तो यह प्रतिबंध सिर्फ कागजी होगा या यह ईमानदार सर्वेक्षण कंपनियों को मैदान से बाहर कर देगा. ऐसे में सूचनाओं का एक काला बाजार बनेगा, जहां विश्वसनीय सूचनाओं का स्थान गुप्त सर्वेक्षण और अफवाह ले लेंगे.

वैसे भी पूर्ण प्रतिबंध का इस्तेमाल आखिरी अस्त्र के तौर पर ही किया जाना चाहिए. हैरानी की बात यह है कि हमारे यहां प्रतिबंध का विकल्प खोजने का कोई प्रयास नहीं दिख रहा है. ऐसे विकल्प का इस्तेमाल पूरी दुनिया में हो रहा है. आज बदहवासी में किसी असंतुलित फैसले की जगह परिपक्व और समझदार प्रतिक्रिया की जरूरत है.

हमारी जरूरत चुनाव संबंधी सर्वेक्षणों पर पाबंदी नहीं, उनके नियमन की है. यह नियमनआचार संहिता, पारदर्शिता और स्वतंत्र जांच की व्यवस्था के जरिये हो सकता है. इसकी देखरेख का जिम्मा किसी स्वतंत्र निकाय को सौंपा जा सकता है. ज्यादातर पुराने लोकतंत्रों में ऐसा ढांचा ठीकठाक तरीके से काम कर रहा है.

हर चुनाव सर्वेक्षण को निम्नलिखित जानकारियों को सार्वजनिक करना अनिवार्य होना चाहिएसर्वेक्षण करनेवाले संस्थान की मिल्कियत और उसका इतिहास, उसके प्रायोजकों का लेखाजोखा, सैंपल कलेक्ट करने का तरीका, उसका आकार और सैंपल इकट्ठा करने की तकनीक, इंटरव्यू, कब कहां और कैसे हुएइसकी जानकारी, सवालों की शब्दावली और क्रम क्या था, पार्टियों को सर्वेक्षण में मिले मतों की संख्या और उन मतों को मतों और सीटों की भविष्यवाणी में बदलने का तरीका आदि.

इन खुलासों के अलावा सर्वेक्षण संस्थानों को मांगे जाने पर अतिरिक्त जानकारियां भी देनी चाहिए. साथ ही किसी विवाद की स्थिति में कच्चे डाटा फाइलों को सार्वजनिक करना और विशेषज्ञों द्वारा गुप्त जांच की व्यवस्था को भी इसमें शामिल किया जा सकता है. दिशानिर्देशों का उल्लंघन करनेवालों पर कठोर कार्रवाई की व्यवस्था भी होनी चाहिए. संभव हो तो यह नियमन चुनाव सर्वेक्षकों और मीडिया द्वारा खुद किया जाना चाहिए. न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन या प्रेस काउंसिल को यह भूमिका सौंपी जा सकती है. हो, तो चुनाव आयोग भी यह जिम्मेवारी ले सकता है. एक बार ऐसी पारदर्शी व्यवस्था खड़ी हो जाये, तो नकली और असली चुनाव सर्वेक्षकों का फर्क सामने जायेगा. यह लोकतांत्रिक विमर्श में एक महत्वपूर्ण कदम होगा.सौ बात की एक बात यह है कि जनमत सर्वेक्षण को राजनेताओं या सर्वेक्षकों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है.

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