नीतीश के उदय का बंगाल पर प्रभाव

2016 में होनेवाले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस बिहार की तर्ज पर बंगाल में सांप्रदायिकता विरोधी एजेंडे के तहत बंगाल की प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट कर सकती है. बिहार के चुनाव नतीजों का प्रभाव पश्चिम बंगाल पर भी पर पड़े बिना नहीं रहेगा. नरेंद्र मोदी विरोधी प्रमुख चेहरे के रूप […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 23, 2015 1:13 AM

2016 में होनेवाले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस बिहार की तर्ज पर बंगाल में सांप्रदायिकता विरोधी एजेंडे के तहत बंगाल की प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट कर सकती है.

बिहार के चुनाव नतीजों का प्रभाव पश्चिम बंगाल पर भी पर पड़े बिना नहीं रहेगा. नरेंद्र मोदी विरोधी प्रमुख चेहरे के रूप में पूरे देश में नीतीश कुमार के उभार ने ममता बनर्जी को बड़ी राहत दी है. इस उभार ने बंगाल में भाजपा की चिंता से अब ममता को बहुत हद तक मुक्त कर दिया है. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को बंगाल की दो संसदीय सीटों पर जीत के साथ ही 17 प्रतिशत वोट मिले थे. उसके बाद विधानसभा की दो सीटों के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस को बराबरी पर रोक दिया था. दोनों दलों को एक-एक सीट पर जीत मिली थी.

अगले साल 2016 में होनेवाले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस बिहार की तर्ज पर बंगाल में सांप्रदायिकता विरोधी एजेंडे के तहत बंगाल की प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट कर सकती है. ममता ने भाजपा को रोकने के लिए निकट अतीत में वाम मोर्चा के अध्यक्ष विमान बोस के साथ राज्य सचिवालय नवान्न में बैठक भी की थी. ऐसे किसी गंठबंधन में सबसे बड़ी बाधा यह है कि माकपा और तृणमूल कांग्रेस जैसी चिरविरोधी पार्टियों में समन्वय के कारण दोनों दलों की विश्वसनीयता घटेगी. याद रहे कि ममता की अगुवाइवाली तृणमूल कांग्रेस का जन्म माकपा के विरोध में ही हुआ था. नीतीश के महागंठबंधन का यह असर है कि माकपा महासचिव सीताराम येचुरी और ममता बनर्जी पटना में एक मंच पर उपस्थित थे.


कांग्रेस और वाम दल बंगाल में अप्रासंगिक हैं. इसलिए अभी तृणमूल कांग्रेस के लिए भी खतरे की घंटी नहीं दिख रही है. खतरे की घंटी है भी, तो आतंरिक है. बर्दवान बम विस्फोट कांड, तुष्टीकरण की नीति, घुसपैठ, सारधा चिटफंड घोटाला, बलात्कार की बढ़ती घटनाएं, विद्या परिसरों में विजातीय प्रभाव और औद्योगिक विकास में लगातार मंदी को लेकर ममता की घेरेबंदी विपक्ष ने शुरू कर दी है. ममता की मजबूरी यह है कि वे बंगाल के 27 प्रतिशत अल्पसंख्यक वोटों की रक्षा के लिए एक तरफ भाजपा विरोध का एजेंडा अपनाए हुए हैं, तो दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं भी उन्होंने शुरू कर दी हैं. इन्हीं योजनाओं को बंगाल भाजपा ने ममता की तुष्टीकरण की नीति बताते हुए मुद्दा बना लिया है. बंगाल में कांग्रेस और वाम दल औंधे मुंह गिरे हैं. बंगाल में भाजपा विकल्प के तौर पर धीरे-धीरे भले उभर रही है, किंतु उसके पास ऐसा सक्षम और कुशल नेतृत्व नहीं है, जो स्वयं को ममता बनर्जी के विकल्प के तौर पर खड़ा कर सके. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के गृह प्रदेश में भाजपा के पास सक्षम नेतृत्व का गहरा संकट है. फिलहाल बंगाल भाजपा में नेतृत्व का जो संकट है, वह एक राजनीतिक यथार्थ है और नेतृत्व का यह संकट ही ममता के लिए सबसे बड़ी अनुकूलता है.

इधर, ममता बनर्जी पार्टी के भीतर और बाहर चुनौतियों से घिरी हैं. संप्रति सारधा घोटाले में उनके मंत्रिमंडल के एक सदस्य मदन मित्र हाल में ही जेल से छूटे हैं. अब जाकर उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया है. पार्टी सांसद सृंजय बोस ने जेल से रिहा होते ही पार्टी छोड़ दी. मंत्री मंजुल कृष्ण ठाकुर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर भाजपा की सदस्यता ले ली. ममता के कभी अत्यंत विश्वस्त रहे पार्टी महासचिव मुकुल राय बगावत की मुद्रा में हैं. इस स्थिति का लाभ उठाने के लिए माकपा और कांग्रेस प्रत्यक्ष या परोक्ष हाथ मिला कर ममता को चुनौती दे सकते हैं.

बंगाल माकपा ने अपने नेतृत्व में काफी परिवर्तन किया है. विमान बोस की जगह सूर्यकांत मिश्र को बंगाल माकपा का राज्य सचिव बनाया गया है. बुद्धदेव भट्टाचार्य पर भी पार्टी की निर्भरता कम हुई है, पर बंगाल में माकपा आज भी आंतरिक मतभेदों से जूझ रही है. माकपा प्रदेश में मुद्दों की राजनीति के प्रश्न पर भी कमजोर हालत में है. पर ममता को ध्यान होना चाहिए कि बंगाल की जनता की आवाज की अभिव्यक्ति और उसकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी उन्हें दी गयी है. वे सौंपी गयी भूमिकाओं का निर्वाह बेहतर तरीके से करेंगी, तभी अगले साल के विधानसभा चुनाव में बेहतर नतीजा हासिल कर पायेंगी.

कृपाशंकर चौबे

एसोसिएट प्रोफेसर

एमजीआइएचयू, वर्धा

drkschaubey@gmail.com

Exit mobile version