शीर्ष संस्थाओं के बीच सहज रिश्ते जरूरी

सीबीआइ और सरकार के रिश्तों में असहजता लगातार बनी हुई है. सीबीआइ की स्वायत्तता को लेकर बहस छिड़ने के बाद से यह असहजता अकसर शीर्ष स्तर पर वार-पलटवार का रूप लेती दिखती है. इसका ताजा उदाहरण तब देखने में आया जब प्रधानमंत्री ने सीबाआइ की स्थापना की 50वीं वर्षगांठ पर आयोजित एक सम्मेलन में सीबीआइ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 13, 2013 3:46 AM

सीबीआइ और सरकार के रिश्तों में असहजता लगातार बनी हुई है. सीबीआइ की स्वायत्तता को लेकर बहस छिड़ने के बाद से यह असहजता अकसर शीर्ष स्तर पर वार-पलटवार का रूप लेती दिखती है. इसका ताजा उदाहरण तब देखने में आया जब प्रधानमंत्री ने सीबाआइ की स्थापना की 50वीं वर्षगांठ पर आयोजित एक सम्मेलन में सीबीआइ को नसीहत देते हुए कहा कि जांच एजेंसी को निर्णय में हुई गलती और ‘आपराधिक निर्णय’ में फर्क करना चाहिए.

इसी मौके पर सीबीआइ निदेशक रणजीत सिन्हा ने कहा कि यह सही है कि आर्थिक विकास के लिए त्वरित फैसले लेने की जरूरत होती है, लेकिन ऐसे निर्णयों में ‘अनुचित व्यवहार’ की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए. शीर्ष स्तर पर इस घमसान को आगे बढ़ाते हुए वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने मंगलवार को सीबीआइ को अपनी हदों में रहने और नीति निर्माण व निगरानी के बीच सतर्कतापूर्वक कदम बढ़ाने को कहा है. चिदंबरम का कहना है कि एजेंसी का काम बेहतर नीतियां सुझाना नहीं है. अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए चिदंबरम ने यह भी जोड़ा कि ऐसे मामले भी देखे गये हैं, जिनमें नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक जैसी संस्थाएं अपनी हद से बाहर जाकर कार्यपालिका के फैसलों को अपराध बता रही हैं.

शीर्ष संस्थानों के शीर्षस्थ पदों पर बैठे व्यक्तियों के बीच यह खींचतान चिंता का विषय है. सबसे पहले यह जरूरी है कि प्रधानमंत्री के कथन को उसके व्यापक संदर्भो में लिया जाये. देश की शासन प्रणाली में हर अंग को निश्चित अधिकार दिये गये हैं. सिद्धांतों का तकाजा यह कहता है कि शासन का कोई भी अंग दूसरे अंग के कामकाज में दखल देने या उसके अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करने का प्रयास न करे. ऐसा करना, शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए बेहद जरूरी है. लेकिन यहीं यह भी ध्यान रखना होगा कि शासन के विभिन्न अंगों का सृजन ही इसलिए किया जाता है कि वे एक-दूसरे पर ‘चेक एंड बैलेंस’ का काम कर सकें.

यह किसी अंग की संभावित निरंकुश प्रवृत्ति पर लगाम लगाने के लिए जरूरी है. लेकिन, ठीक यहीं यह समझना भी जरूरी है कि देश के शीर्ष संस्थानों के बीच ऐसा विसंवादी स्वर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं या निर्णयों को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करेगा.

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