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संसद से उम्मीदें

वैश्विक मंच पर भारत का कद लगातार बढ़ने की एक बड़ी वजह भारतीयों का यह अटूट विश्वास भी है कि देश की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को लोकतांत्रिक तरीकों से ही बेहतर बनाया जा सकता है. इसी विश्वास के साथ जनता अपने जनप्रतिनिधि चुन कर लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था यानी संसद में भेजती है. हर […]

वैश्विक मंच पर भारत का कद लगातार बढ़ने की एक बड़ी वजह भारतीयों का यह अटूट विश्वास भी है कि देश की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को लोकतांत्रिक तरीकों से ही बेहतर बनाया जा सकता है. इसी विश्वास के साथ जनता अपने जनप्रतिनिधि चुन कर लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था यानी संसद में भेजती है. हर वोट के साथ उसकी यह उम्मीद भी जुड़ी होती है कि उसका सांसद लोकतंत्र की महान संस्थाओं का सम्मान करेगा और जनता की तकलीफें कम करने की राह तलाशेगा. ऐसे में हाल के वर्षों में संसद में बढ़ता हंगामा बड़ी चिंता का सबब बन रहा है. पिछले मॉनसून सत्र के दौरान राज्यसभा में एक भी वित्त विधेयक पारित न हो सका था, जबकि लोकसभा में अध्यक्ष द्वारा 25 विपक्षी सांसदों के निलंबन के बाद ही आठ विधेयक पार लग सके थे.

आवंटित समय में से राज्यसभा ने महज नौ फीसदी तथा लोकसभा ने 48 फीसदी का ही उपयोग किया था. अभी यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि 26 नवंबर से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र को सुचारु रूप से चलाने के मुद्दे पर बुधवार को होनेवाली सर्वदलीय बैठक में क्या नतीजा निकलता है. लेकिन, दुर्भाग्य से यदि इस सत्र में भी मॉनसून सत्र का ही दोहराव दिखा, तो संकेत यही जायेगा कि हमारे सांसद इतिहास में हासिल अनुभवों से सबक सीखने के लिए तैयार नहीं हैं. माना जा रहा है कि इस सत्र में सरकार की पूरी कोशिश वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) विधेयक पारित कराने की होगी, जिसमें विपक्ष को कुछ प्रावधानों पर आपत्ति है. विपक्ष ने असहिष्णुता के मुद्दे पर बहस की मांग की है.

कई कानूनों को अध्यादेशों के जरिये लागू करने के सत्ता पक्ष के तरीके पर भी विपक्ष को नाराजगी है. मोदी सरकार ने एक साल के भीतर 14 अध्यादेश जारी किये हैं, जबकि पूर्ववर्ती सरकार ने चार वर्षों में 25 अध्यादेश जारी किये थे. इसमें दो राय नहीं कि संसद चलने पर ही विकास के मार्ग को प्रशस्त करनेवाली नीतियां बन सकेंगी. लेकिन, विपक्ष को साथ लेकर संसद के सुचारु संचालन के लिए उचित प्रबंधन की प्रारंभिक जिम्मेवारी सत्ता पक्ष की ही है. सरकार को अपनी इस जिम्मेवारी का गंभीरता से निर्वाह करना चाहिए. पिछले अनुभव बताते हैं कि प्रधानमंत्री एवं कुछ वरिष्ठ मंत्रियों के संसदीय गतिविधियों से अक्सर अनुपस्थित रहने से भी टकराव की स्थिति बनी है. विपक्ष को भी अपने तेवर पर पुनर्विचार करना चाहिए. फिलहाल देश अपनी संसद और अपने सांसदों की ओर बड़ी उम्मीद से देख रहा है.

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