भारत का आधार मजबूत करते मोदी
ऐसा लगता है कि भले ही भारत इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती ताकत के बीच अपने लिए रास्ता बनाना चाहता है, विडंबना यह भी है कि भारत को दक्षिण-पूर्व एशिया में अपने आर्थिक हितों के लिए चीन की ताकत को भी रास्ता देना पड़ सकता है. यदि नरेंद्र मोदी के हालिया बयानों का कोई […]
ऐसा लगता है कि भले ही भारत इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती ताकत के बीच अपने लिए रास्ता बनाना चाहता है, विडंबना यह भी है कि भारत को दक्षिण-पूर्व एशिया में अपने आर्थिक हितों के लिए चीन की ताकत को भी रास्ता देना पड़ सकता है.
यदि नरेंद्र मोदी के हालिया बयानों का कोई मतलब है, तो फिर एशिया के भू-राजनीतिक समीकरणों में भारत के रूप में एक नया एवं गंभीर खिलाड़ी शामिल हो सकता है. भारतीय प्रधानमंत्री का सिंगापुर दौरा पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन और आसियान (एसोसिएशन ऑफ साउथ इस्ट एशियन नेशंस) समिट के बाद हुआ है, जहां उन्होंने स्पष्ट संकेत दिया है कि भारत ‘बिग ब्वॉयज क्लब’ का हिस्सा होने की मंशा रखता है.
एक विकासशील अर्थव्यवस्था और निश्चित रूप से दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार होने के बावजूद दक्षिण-पूर्वी और पूर्वी एशिया में भारत का प्रभाव, चीन के तीव्र उदय के साये और अतीत में अपनी आर्थिक संभावनाओं को वास्तविकता में बदलने में उसकी असफलता के कारण, ढका रहा है. इस क्षेत्र की भू-राजनीति मुख्यतः चीन और अमेरिका की खींचतान और कभी-कभी जापान पर केंद्रित रही है. इस कारण भारत का प्रभाव उसके दक्षिण एशिया के पड़ोस तक ही सीमित रहा है. लेकिन, ऐसा लगता है कि भारत अब इस समीकरण को बदलना चाहता है.
कुआलालंपुर में पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में मोदी ने साउथ चाइना सी के विवाद पर अपनी सलाह दी. यह मुद्दा पिछले कुछ समय से आसियान के एजेंडे में प्रमुखता से छाया रहा है. उम्मीद के विपरीत उन्होंने चीन समेत इस मसले में शामिल देशों को भारतीय कूटनीति से सीखने की सलाह तक दे दी. उन्होंने कहा, ‘भारत और बांग्लादेश ने हाल में संयुक्त राष्ट्र के नियमों के अनुरूप सामुद्रिक सीमा के विवाद का निपटारा किया है.
भारत की आशा है कि साउथ चाइना सी के विवाद में शामिल देश इससे संबंधित घोषणा और उसके लागू करने के निर्देशों का पालन करेंगे. सर्वसम्मति पर आधारित आचार-संहिता तैयार करने के लिए सभी संबद्ध पक्षों को अपने प्रयास तेज करने चाहिए.’ उन्होंने इस विवाद में भारत के हितों को भी रेखांकित किया कि ‘समुद्र उसकी समृद्धि और सुरक्षा की राह है’ तथा वह ‘आवागमन, समुद्र के ऊपर उड़ान भरने और निर्बाध वाणिज्य’ के आसियान देशों के संकल्प के साथ है. चीन की ओर संकेत करते हुए उन्होंने सम्मेलन को यह भी याद दिलाया कि ‘क्षेत्रीय विवाद शांतिपूर्ण तरीकों से ही हल किये जाने चाहिए.’
इस क्षेत्र में भारतीय प्रभाव को बढ़ाने के लिए मोदी ने बड़ी चतुराई से भारतीय आप्रवासियों को प्रस्थान बिंदु के रूप में इस्तेमाल किया है. अपनी अन्य विदेश यात्राओं की तरह उन्होंने कुआलालंपुर में भी भारतीय प्रवासियों की बड़ी सभा को संबोधित किया. वहां उनका एक उल्लेखनीय बयान यह था कि ‘भारत सिर्फ अपनी सीमाओं तक सीमित नहीं है. भारत दुनिया में बसे हर भारतीय के भीतर मौजूद है.’
स्पष्ट है कि उन्होंने देश के वैश्विक प्रभाव के विस्तार के लिए भारत के सॉफ्ट पॉवर को मिला कर एक फॉर्मूला तैयार किया है, जिसमें उनकी अपनी अपील और लोकप्रियता, आप्रवासियों का भावनात्मक संबंध और आकार तथा उनके माध्यम से भारतीय संस्कृति के पहलुओं को स्थानीय स्तर पर प्रसारित करने के लिए इस्तेमाल करना जैसे तत्व शामिल हैं. शायद यह कोई संयोग नहीं है कि विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप उस किताब के लेखक हैं, जिस पर ‘स्लमडॉग मिलियनॉयर’ फिल्म बनी है, जो भारत का पश्चिम को सबसे सफल सॉफ्ट पॉवर निर्यात है.
लेकिन, जहां तक इस क्षेत्र में और अपनी ताकत बढ़ाने का मसला है, मोदी जानते हैं कि भारत को एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय सहयोगी की जरूरत है. यहां जापान का प्रवेश होता है. आसियान-भारत शिखर सम्मेलन में मोदी की मौजूदगी की एक उल्लेखनीय परिघटना उनका जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे से मुलाकात थी. रिपोर्टों के अनुसार, दोनों नेताओं के बीच घंटे भर से अधिक देर तक बातचीत हुई और इसमें साउथ चाइना सी का मसला मुख्य था. बताया जा रहा है कि दोनों ने सुरक्षा सहयोग को मजबूत करने पर जोर दिया, और प्रधानमंत्री आबे ने साउथ चाइना सी में चीन द्वारा जमीन हथियाने पर अपनी चिंता से अवगत कराया, जिससे प्रधानमंत्री मोदी ने सहमति जतायी. आबे ने बातचीत के बाद मीडिया को बताया कि वे अगले महीने भारत की यात्रा पर जा रहे हैं. इस यात्रा से दोनों देशों की रणनीतिक नजदीकियां बढ़ेंगी.
लेकिन, यहीं नरेंद्र मोदी की राजनीतिक समझ रेखांकित होती है. एक ओर वे सुरक्षा मामलों में चीन के सामने खड़े दिखते हैं, वहीं दूसरी ओर आर्थिक मोर्चे पर वे चीन के साथ खड़े हैं. पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में मोदी ने व्यापक और समावेशी क्षेत्रीय आर्थिक संरचना की जरूरत पर बल दिया, जो कि चीन की भी इच्छा है. हाल में हुए ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप समझौते में चीन और भारत शामिल नहीं है. इसका अर्थ यह है कि दोनों देश आकर्षक व्यापारिक गतिविधियों से बाहर रह जायेंगे. स्थिति तब और बिगड़ सकती है जब यह समझौता रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप से अधिक प्रभावी हो जायेगा, जिसमें भारत और चीन दोनों हिस्सेदार हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि ये दोनों इकाइयां परस्पर प्रतिस्पर्धी नहीं बनेंगी, बल्कि इस क्षेत्र में एक एकीकृत आर्थिक समुदाय का आधार बनेंगी.
ऐसा लगता है कि भले ही भारत इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती ताकत के बीच अपने लिए रास्ता बनाना चाहता है, विडंबना यह भी है कि भारत को दक्षिण-पूर्व एशिया में अपने आर्थिक हितों के लिए चीन की ताकत को भी रास्ता देना पड़ सकता है. ऐसे परस्पर विरोधी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कूटनीति के स्तर पर बड़े संतुलन की आवश्यकता होगी. ऐसे में यह उचित प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र में भारत की विदेश नीति की बागडोर खुद प्रधानमंत्री मोदी ने अपने हाथों में लिया हुआ है.
(सिंगापुर के अखबार ‘टुडे ऑनलाइन’ से साभार)
मलमिंदरजीत सिंह
पूर्व कार्यकारी निदेशक, इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री, सिंगापुर
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