राजमार्ग निर्माण की धीमी गति
।। अश्विनी महाजन।।(एसो. प्रोफेसर, डीयू) सरकार द्वारा सड़क निर्माण में आ रही बाधाओं को दूर करने के लिए सड़क निर्माण नियामक प्राधिकरण का एक मसौदा तैयार किया गया है. चिदंबरम ने अपने बजट भाषण में इस प्राधिकरण के गठन की बात कही थी. संकेत है कि सरकार इस पर अध्यादेश भी ला सकती है. गौरतलब […]
।। अश्विनी महाजन।।
(एसो. प्रोफेसर, डीयू)
सरकार द्वारा सड़क निर्माण में आ रही बाधाओं को दूर करने के लिए सड़क निर्माण नियामक प्राधिकरण का एक मसौदा तैयार किया गया है. चिदंबरम ने अपने बजट भाषण में इस प्राधिकरण के गठन की बात कही थी. संकेत है कि सरकार इस पर अध्यादेश भी ला सकती है. गौरतलब है कि गत कई वर्षो से राष्ट्रीय राजमार्ग निर्माण का काम थम सा गया है. और लगभग 17 हजार करोड़ रुपये की परियोजनाएं कानूनी पचड़ों में फंसी पड़ी हैं. सरकार का कहना है कि विवादों के त्वरित निपटान में यह प्राधिकरण सहयोगी हो सकेगा.
सरकार का तर्क कुछ भी हो, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस अध्यादेश के माध्यम से सरकार पिछले नौ वर्षो में सड़क निर्माण में अपनी नाकामी को ढकने की कोशिश कर रही है. वर्ष 2000 के बादएनडीए सरकार ने सड़क निर्माण में अभूतपूर्व विकास किया. एनडीए शासनकाल में कुछ योजना व्यय का 10 से 15 प्रतिशत सड़क योजनाओं पर खर्च हुआ. इसका असर यह हुआ कि वर्ष 2002 से 2005 के बीच 6300 किलोमीटर सड़क का निर्माण स्वर्णिम चतुभरुज सहित अन्य राष्ट्रीय राजमार्र्गो पर हो सका. इसके अतिरिक्त उस समय राष्ट्रीय राजमार्गो की 6200 किलोमीटर सड़कें निर्माणाधीन थीं. लेकिन, यूपीए सरकार की प्रथम पारी से ही राष्ट्रीय राजमार्ग योजना लगभग बंद सी हो गयी. चरण-1 के दौरान बनाये जानेवाले स्वर्णिम चतुभरुज का कार्य भी अभी तक पूरा नहीं किया जा सका है.
आज राष्ट्रीय राजमार्गो के निर्माण और नवीनीकरण के काम में सरकार की भूमिका घटी है. इसे प्राय: निजी-सार्वजनिक साङोदारी के जरिये अंजाम दिया जाता है. जितना धन सरकार द्वारा दिया जाता है, सड़क परियोजनाओं पर उससे 10 गुना से ज्यादा खर्च होता है. 2000-01 में सरकार द्वारा राष्ट्रीय राजमार्गो हेतु 4,500 करोड़ रुपया खर्च किया गया, जबकि इन पर कुल निवेश लगभग 55,000 करोड़ रुपये का हुआ. यदि पिछले दो वर्षो का भी जायजा लें तो जहां 2012-13 में राजमगार्ग निर्माण के लिए निर्धारित 9,500 किलोमीटर सड़क में से मात्र 1,322 किलोमीटर के लिए ही ठेका दिया जा सका. वर्ष 2013-14 के लिए लक्ष्य को 7,500 किलोमीटर से घटाते हुए 2,128 किलोमीटर किया जा रहा है. इसका कारण यह है कि सड़क निर्माण कंपनियों द्वारा इस संबंध में कोई उत्सुकता नहीं दिखायी जा रही. इस वर्ष अभी तक मात्र 123 किलोमीटर राजमार्ग निर्माण का काम किया जा सका है. सरकार बाहरी एक्सप्रेस-वे, दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेस-वे, मुंबई-बड़ौदा और दिल्ली जयपुर एक्सप्रेस-वे हेतु निविदाएं आमंत्रित करने की योजना बना रही है, पर निजी कंपनियां इस संबंध में उत्साहित नहीं दिख रही हैं.
सड़क निर्माण के क्षेत्र में वास्तव में विवाद नहीं बल्कि आर्थिक कारण आड़े आ रहे हैं. नये ठेकों में भी कंपनियों द्वारा रुचि नहीं दिखाया जाना इस ओर संकेत करता है. वर्ष 2005-06 से पहले सड़क निर्माण को बढ़ावा मिलने में बड़ा योगदान आर्थिक कारणों का था. उस कालखण्ड में ब्याज दर घट कर सात से आठ प्रतिशत के दायरे में आ गयी थी. ऐसे में कंपनियों ने सस्ती दरों पर ऋण उठा कर सड़कों के निर्माण में भारी निवेश किया और टोल के माध्यम से खूब पैसा भी कमाया. लेकिन, पिछले कुछ वर्षो से बढ़ती महंगाई के चलते ब्याज दरें भी बढ़ती जा रही हैं, जिसके कारण उधार की लागत बढ़ गयी है. इसके अतिरिक्त सड़क निर्माण हेतु आवश्यक सामग्री जैसे सीमेन्ट, पत्थर और लोहा सहित सभी प्रकार की सामग्रियों की कीमत भी पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गयी है. टोल लगाने की भी एक सीमा होती है ऐसे में सड़क निर्माण अब निजी कंपनियों के लिए लाभकारी नहीं रहा. जिन कारणों से सड़क निर्माण रोका है उनमें से अधिकांश कारणों को प्राधिकरण दूर कर पाने की स्थिति में नहीं होगा.
अच्छी सड़कों की उपलब्धता से वाहनों की स्पीड बढ़ती है, ईधन कम खर्च होता है, समय की बचत होती है. साथ ही मांग के अनुरूप वस्तुओं की आपूर्ति जल्दी की जा सकती है. इनसे आमदनी बढ़ती है और बढ़ी हुई आमदनी का प्रयोग देश के विकास कार्यो में हो सकता है. इसलिए सरकार ढांचागत क्षेत्र के विकास में अपनी भूमिका से मुंह नहीं फेर सकती. उसे किसी भी प्रकार से इस क्षेत्र के विकास के लिए सक्रिय भूमिका का निर्वाह करना होगा. इन परियोजना हेतु सस्ती दरों पर ऋण उपलब्ध कराने से निजी कंपनियों की रुचि को बढ़ाया जा सकता है. यदि सरकार नेक-नीयत से सड़क निर्माण के काम को गति देने का काम करती तो मंदी की मार सह रहे ढांचागत क्षेत्र ही नहीं, संपूर्ण अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में मदद मिलती.