पूर्वी सिंहभूम जिले की पोटका थाना पुलिस ने एक युवक को इतना पीटा कि उसकी मौत हो गयी. टांगरसाई निवासी राजेश बोदरा (30) को पुलिस ने इस आरोप में उठाया था कि वह किसी के घर में घुस कर रात में हंगामा कर रहा था. यह बात समझ से परे है कि एक छोटे से मामले में पुलिस को इतना सख्त रुख क्यों अख्तियार करना पड़ा. राजेश बोदरा के परिजनों का आरोप है कि पुलिस ने उनके सामने ही राजेश को बेरहमी से इस कदर पीटा कि वह बेहोश हो गया. झारखंड में पुलिसिया बर्बरता की यह कोई पहली वारदात नहीं है.
पहले भी कई ऐसे मामले उजागर हो चुके हैं जिनमें पुलिस का घिनौना चेहरा उजागर हुआ है. दरअसल, पुलिस की छवि आज भी अंग्रेजों के जमाने वाली है. पुलिस का मतलब आज भी लोग मार-पिटाई, प्रताड़ना, सख्त लहजा और बेरहम व्यवहार ही समझते हैं. क्या यह सच नहीं है कि आजाद भारत में दूसरे विभागों को जिस तेजी से बदला गया पुलिस उसके मुकाबले बहुत पीछे रह गयी.
पुलिस आज भी तफ्तीश में विज्ञान व तकनीक के इस्तेमाल की जगह मार-पीट पर अधिक जोर देती है. हिरासत में लिये गये आरोपियों पर थर्ड डिग्री का इस्तेमाल तो जैसे पुलिस का जन्मसिद्ध अधिकार हो. कई बार पुलिस का व्यवहार इतना क्रूर हो जाता है कि लोगों की जान तक चली जाती है या पीड़ित का अंग-भंग हो जाता है. ज्यादातर मामले उजागर ही नहीं हो पाते.
अगर कोई मामला उजागर हो भी गया, तो पुलिस के आला अधिकारी जांच के नाम पर खानापूर्ति करके उसे रफा-दफा कर देते हैं. पहले भी कई मौकों पर इस बात को महसूस किया गया है कि पुलिस को अपनी कार्यशैली बदलने की जरूरत है. उसे अपने अनुसंधान के तरीके को बदलने की आवश्यकता है. पुलिस का मानवीय पक्ष उभारना जरूरी है. कई मामलों में पुलिस तार्किक न होकर घिसे-पिटे फामरूले का इस्तेमाल करती है. इसका कोई खास लाभ नहीं मिलता. पुलिस की लापरवाही तो जगजाहिर है ही. कई मामलों में वह इतनी सुस्त होती है कि गवाह या सबूत हाथ से निकल जाता है. यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि ‘संज्ञेय मामलों में पुलिस तुरंत एफआइआर दर्ज करे, तफ्तीश की प्रक्रिया के कारण इसमें देर हो जाती है.