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गेहूं बनाम विज्ञान का गुलाब

।। पुष्यमित्र।। (पंचायतनामा, रांची)पिछले दिनों जब इसरो ने मंगल अभियान की शुरुआत की तो देश में दो तरह की प्रतिक्रियाएं दीं. जहां कई लोगों ने इसे राष्ट्रीय उपलब्धि की तरह स्वीकार किया, वहीं ऐसे लोगों की भी कमी नहीं थी जो यह कह रहे थे कि इस देश में जहां इतनी गरीबी और बदहाली है […]

।। पुष्यमित्र।।

(पंचायतनामा, रांची)
पिछले दिनों जब इसरो ने मंगल अभियान की शुरुआत की तो देश में दो तरह की प्रतिक्रियाएं दीं. जहां कई लोगों ने इसे राष्ट्रीय उपलब्धि की तरह स्वीकार किया, वहीं ऐसे लोगों की भी कमी नहीं थी जो यह कह रहे थे कि इस देश में जहां इतनी गरीबी और बदहाली है मंगल पर यान भेजे जाने का सपना देखना कतई सही बात नहीं है. यह 450 करोड़ की फिजूलखर्ची है.

हालांकि गरीबों के पेट का इंतजाम पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, मगर एक विकासशील राष्ट्र के लिए यह कदम किसी रूप में सही नहीं ठहराया जा सकता कि वह चौबीसो घंटे गरीबी का रोना रोता रहे और इसको आधार बना कर तमाम वैज्ञानिक शोधों पर रोक लगा दे कि यह तो फिजूलखर्ची है. मैंने सुना है कि जब देश के पहले उपग्रह आर्यभट्ट का प्रक्षेपण किया गया था, तो भी कई लोगों ने कहा था कि क्या यह वहां से गेहूं लेकर आयेगा. उन बयानों को याद करते हुए हमें हाल में आये ‘फैलिन’ तूफान के अनुभवों को याद करना चाहिए. अगर आज हमारे पर उपग्रह प्रणाली नहीं होती, तो हमारी हालत भी कमोबेश फिलीपींस जैसी होती जहां दसियों हजार लोग मौत की आगोश में सो गये हैं.

मगर उस वक्त किसके पास जवाब था कि आर्यभट्ट गेहूं तो नहीं लायेगा, लेकिन उसकी (आर्यभट्ट की) आनेवाली पीढ़ियों के दम पर 35-36 साल बाद लोग एक पैसे प्रति सेकेंड में बतियाएंगे और टीवी की बहसों के जरिये देश की राजनीति बदल जायेगी. सिर्फ गेहूं की फिक्र करने से देश आगे नहीं बढ़ता और गेहूं की फिक्र में ही लाखों अरब रुपये वाली खाद्य सुरक्षा योजना को आकार दिया गया है, उसके लिए पैसों की कमी नहीं है. 450 करोड़ तो वह छोटी सी राशि है, जितने के पटाखे देश में छोड़ दिये जाते हैं. अभी पिछले दिनो अखिलेश सरकार ने अपने राज्य के युवाओं को 1500 करोड़ रुपयों का लैपटॉप बांटा. निश्चित तौर पर वह चुनावी वादा था, मगर उसके नतीजे जरूर सकारात्मक होंगे.

युवाओं को अगर भटकाव से बचा लिया, तो यही कम बड़ी उपलब्धि नहीं. हमें देश में वैज्ञानिक सोच को बढ़ाने के लिए प्रयास तो करने ही चाहिए. तभी तो देश में कल्पना चावला और सीवी रमण पैदा होंगे. मगर यह भी सही है कि वैज्ञानिक सोच सिर्फ अंतरिक्ष कार्यक्रमों से विकसित नहीं होगी. स्कूलों में विज्ञान की पढ़ाई का स्तर सुधारना सबसे जरूरी है. आज दसवीं और बारहवीं में जो प्रैक्टिकल एक्जाम होते हैं, उनका मकसद बच्चों को सिर्फ अतिरिक्त अंक बांटना होता है. अधिकतर स्कूल-कॉलेजों में प्रयोग की संस्कृति खत्म हो गयी है. अब प्रयोगशालाओं में सोडियम और पोटाश के रिएक्शन नहीं बताये जाते हैं. स्कूलों में डिसेक्शन नहीं होते. विद्यार्थी केमिस्ट्री या बायोलॉजी में एमएससी-पीएचडी नहीं करना चाहते. व्यावसायिक शिक्षा ने वैज्ञानिक चेतना को हर लिया है. अब सरकार को इसे फिर से बहाल करने की जरूरत है. गेहूं का इंतजाम तो हो ही रहा है दोस्त!

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