सुधार, शोर और समाधान

अनिल रघुराज संपादक, अर्थकाम.कॉम संसद में शोर है. एक-दूसरे को काटती लकीरें क्षितिज तक जाते-जाते आपस में विलीन हो जाती हैं. कोई सूत्र हाथ नहीं लगता, समाधान नहीं मिलता. बाजार में भीड़ है. राहगीर को जाने की जगह नहीं, लेकिन ग्राहक बिना कुछ खरीदे बाहर निकल आता है. कल जो मेले गांवों में लगते थे, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 30, 2015 11:44 AM

अनिल रघुराज

संपादक, अर्थकाम.कॉम

संसद में शोर है. एक-दूसरे को काटती लकीरें क्षितिज तक जाते-जाते आपस में विलीन हो जाती हैं. कोई सूत्र हाथ नहीं लगता, समाधान नहीं मिलता. बाजार में भीड़ है. राहगीर को जाने की जगह नहीं, लेकिन ग्राहक बिना कुछ खरीदे बाहर निकल आता है. कल जो मेले गांवों में लगते थे, अब वे वहां से भाग कर शहरों के मॉल बन गये, जहां कोई चिल्लाता नहीं. लेकिन, कहीं किनारे लग कर सुनिए, तो लगता है कि असंख्य मधुमक्खियों ने हाहाकार मचा रखा हो. रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर भी यही निरर्थक कोलाहल है. सड़कों का जाल फैला है. आने-जाने के साधन भी बहुत हैं, लेकिन राह नहीं मिलती. इतना सारा सोशल मीडिया. हर तरफ कौआरोर है, लेकिन इंसान अकेला होता जा रहा है. असुरक्षा बढ़ रही है. पढ़-लिख कर बड़े नहीं बन पाये तो क्या होगा! नौकरी नहीं मिली तो क्या होगा! अगले साल भी बारिश खराब हुई, तो मांड़-भात तक के भी लाले पड़ जायेंगे. गांव से कस्बे, कस्बे से शहर, शहर से नगर और नगर से महानगर. फिर राज्य व प्रदेश होते-होते देश तक जा पहुंचे. भरोसा था कि दायरा बढ़ने से बड़ी समस्याएं छोटी होंगी. समस्याएं तो मिटी नहीं, पीढ़ियां जरूर मिट गयीं. क्या करें! शोर बहुत है, समाधान नहीं है. 1975 की दूसरी आजादी की लड़ाई के नेता कुर्सियों में जम गये. व्यवस्था के रंग में रंग गये. जाति मिटाते-मिटाते जातियों के समीकरण में ढल गये. किसी ने खानदानी सफाखाना बनाया, तो किसी ने बेटे-बेटियों को सत्ता की राजनीति में जड़ दिया. बाकी नेता भी कोई न कोई ठेहा पकड़ कर सेट हो गये हैं. राजनीति की गोटें वे बुद्धि से बि छाते हैं, लेकिन जनता के बीच हमेशा भावनाएं उबालते हैं. मलाई पहले ही निकाल ली, अब चासनी निकालते हैं. समाजवाद जब समाज को खोखला करता सरकारवाद बन गया, तो तरकश से बाजारवाद का नया इंद्रधनुष नि काला गया. हर तरफ, हर तरहके सुधारों की बात. लगा कि अब चंद सालों की बात है. फिर तो देश विकसित हो जायेगा. सड़क से बिजली और पानी तक कोई समस्या नहीं बचेगी. शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं की कोई कमी नहीं होगी. रोजगार की भरमार होगी. रोजगार जब तक नहीं भी मिले, तब तक यूरोप-अमेरिका की तरह इतना भत्ता मिलेगा कि मां-बाप पर बोझ नहीं बनना होगा. पंद्रह-बीस साल तक आर्थिक सुधारों का शोर चला. धीरे-धीरे परदा उठा, तो पता चला कि जमीन के भीतर का संसाधन ही नहीं. हवा तक में घुली तरंगों पर लाखों करोड़ का वारा-न्यारा हो गया. नेताओं ने अपने फलने-फूलने और अपनी चहेती कंपनियों के खिलने का इंतजाम करडाला. लेकिन, सार्वजनि क जीवन की विसंगति ऐसी ही है कि कालिख खुल ही जाती है. उसके बाद विकास का शोर उठा. अब लोग विकास की हर बूंद के पीछे दौड़ पड़ते हैं. गांव के लोग नयी-नयी बनती बिल्डिंगों में काम पकड़ने दिल्ली, गुड़गांव, मुंबई, पुणे, अहमदाबाद ही नहीं, हैदराबाद व चेन्नई तक चले जाते हैं. बच्चे भविष्य सुधारने कोचिंग के चक्कर में रेगिस्तानी राजस्थान के कोटा तक की शरण लेते हैं. देश विकसित होने का नाम ही नहीं ले रहा है. जिस देश की 80 करोड़ से ज्यादा आबादी 35 साल से कम है, उस देश की कमर झुकी हुई है. इधर, शोर ऐसा उठा है मानो सारी समस्याओं का समाधान विदेशी पूंजी के आने में है. बताया जाता है कि कित ना एफडीआइ देश में आया और कितने क्षेत्रों को हमने एफडीआइ के लिए खोल दिया है. लेकिन, जिस खेती पर देश की 60 प्रतिशत से ज्यादा आबादी निर्भर है, उसको लेकर कोई शोर नहीं, बस सन्नाटा है. कहते हैं कि सिंचाई व अच्छे बीजों से कृषि की समस्या हल कर देंगे. लेकिन, पंजाब में तो सिंचाई भी खूब है और अच्छे बीज भी जम करआये, फिर वहां का किसान क्यों हलकान है? नौजवान नशे की गिरफ्त में क्यों चले गये? कहते हैं कि गेहूं-धान नहीं, कैश क्रॉप की खेती करो. लेकिन, गन्ने व कपास से लेकर प्या ज जैसी कैश क्रॉप बोनेवाले महाराष्ट्र के किसान क्यों अपनी जान दिये जा रहे हैं? अपनी निजी जिंदगी, उद्योग – व्यापार और नौकरी-चाकरी के भी सैकड़ों सवाल हैं. चारों ओर इसको लेकर शोर भी बहुत है, लेकिन समाधान नहीं हैं. इस शोर में सच न जाने कहां गायब है. सवाल है कि सच की तलाश की जिम्मेवारी किसकी है? उसी की है, जिसकी इसे सबसे ज्यादा तलाश है, जिसकी समस्याओं का समाधान इसके बिना नहीं निकल रहा. और, इति हास साक्षी है कि हर दौर में सत्य का अनुसंधान वे लोग करते हैं, जो इस शोर से बाहर होते हैं. जो जिस हद तक इस शोर से ऊपर उठ पाता है, वह सच के उतना ही करीब पहुंच पाता है. बाकी तो झांझ, करताल या बहुत हुआ तो मृदंग ही बजातेरह जाते हैं.

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