बेआवाज जोर का झटका!

वीर विनोद छाबड़ा व्‍यंगकार सुबह-सुबह दस्तक हुई. एक तकरीबन गंजा आदमी खड़ा है. उसने बंदे को कस कर झप्पी मारी- मैं मोहन लाल चड्ढा. बंदा उछल पड़ा- ओए, मोड़ी कंचे वाला! मेरा निक्कर फ्रेंड! मोड़ी तो दार्शनिक हो गया. रोजी-रोटी और वक्त की आंधी ने जुदा कर दिया था. लेकिन, वाह री किस्मत. आज चालीस […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 30, 2015 11:47 AM

वीर विनोद छाबड़ा

व्‍यंगकार

सुबह-सुबह दस्तक हुई. एक तकरीबन गंजा आदमी खड़ा है. उसने बंदे को कस कर झप्पी मारी- मैं मोहन लाल चड्ढा. बंदा उछल पड़ा- ओए, मोड़ी कंचे वाला! मेरा निक्कर फ्रेंड! मोड़ी तो दार्शनिक हो गया. रोजी-रोटी और वक्त की आंधी ने जुदा कर दिया था. लेकिन, वाह री किस्मत. आज चालीस साल बाद फिर मिल गये. तार से तार जोड़ते हुए तलाश ही लिया तुझे. बेमिसाल प्यार की निशानी. वरना तो सगे भाई को लोग नहीं पहचानते. बंदे ने मेमसाब से परिचय कराया- बस यों समझो, बचपन में मेले में खोया भाई बुढ़ापे में मिला. इनके बेटे की शादी है. कह रहे हैं कि हर हाल में आना है. लेकिन, मेमसाब ऐन मौके पर बिदक गयीं. मुंह से सिगरेट की बदबू आती है. मेंढक जैसी आंखें और तोते जैसी नाक. यों भी मेमसाब को वो आदमी सख्त नापसंद है, जो बरात को लड़कीवालों के मत्थे मढ़ता है.

खुद पार्टी नहीं करता. मेमसाब को मायका याद आता है- ऐसे चालाक लोगों के यहां खूब खाओ-पियो और खाली लिफाफा पकड़ा कर चल दो. आखिरकार बंदे को अकेले ही जाना पड़ा. चार-चार मैरिज लॉन, अंदाज से एक में घुस लिया. डिस्को का बेतरह शोर. बंदा वहां किसी को पहचानता ही नहीं. कैसे ढूंढ़े मोड़ी को? लेकिन, किस्मत अच्छी थी. थोड़ी कवायद के बाद मिल गया. शानदार क्रीम कलर का गलेबंद सूट. बंदे ने सोचा मोड़ी उसे देख लिपट जायेगा- देखो भाइयों, यह है मेरा निक्कर फ्रेंड. मगर मोड़ी ने ऐसा कुछ नहीं किया. सूट खराब होने के डर से वह पीछे खिसक गया.

उलटे बंदे के हाथ से लिफाफा तकरीबन छीन कर बैग में रख लिया. पूछा भी नहीं कि भाभी कहां हैं? बंदा इस बेआवाज जोर के झटके से अभी संभला ही नहीं था कि देखा मोड़ी गायब हो चुका है. उसे घूम-घूम कर वसूली जो करनी है. लोग खाने पर ऐसे टूटे पड़े हैं, जैसे पहले कभी खाया नहीं. बंदा खुद से सवाल-जवाब कर रहा है- इस भीड़ में कैसे घुसूं? छोड़ो, घरजाकर खाऊंगा. लेकिन, यार तूने तो भारी लिफाफा दिया है. मुफ्त में तो खाना नहीं. अगले ही क्षण बंदा भीड़ का हिस्सा बन जाता है. सूट जरा खराब हो गया. लेकिन, कोई परवाह नहीं. नाना प्रकार के व्यंजन बंदे ने ठूंसे. आखिर में मुंह में बनारसी पान की गिलौरी दबायी. जितना दिया, उससे चार गुना ज्यादा वसूला. दिल को ठंडक पहुंची.

बंदा पंडाल से बाहर आया. यहां भिन्न दृश्य है. चंद कदम दूर मैले-कुचैले अनेक दूध पीते बच्चे, जवान औरतें और लाचार बूढ़े. तन पर कपड़ों के नाम पर नाममात्र के लिए फटे-पुराने चीथड़े, तार-तार होता स्वेटर, असंख्य छिद्रों वाली शॉल और कंबल. एक कदम दूर दर्जन भर से ऊपर गऊयें हैं और कई आवारा कुत्ते भी. सूअरों का झुंड भी ताक में है. उनकी ललचाई आंखें पंडाल को घूर रही हैं. शिद्दत से इंतजार है कि कब दावत खत्म हो और उनको भी जूठन में से उनके हिस्से का कुछ हिस्सा मिल सके.

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