भारतीय लड़ाके किसी से भी कम नहीं

मैं एक युद्ध के वर्णन को पढ़ कर चकित रह गया था, जिसमें कुछ दर्जन राठौरों ने प्रतिद्वंद्वी एक लाख राठौरों को तितर-बितर कर दिया था. यह एक ऐसे देश की विरासत या उसका सूचक नहीं है, जिसके लड़ाके अरबों से कमतर हों. मैंने कुछ दिन पहले एक हैरान करनेवाली खबर पढ़ी. इसमें कहा गया […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 1, 2015 2:11 AM
मैं एक युद्ध के वर्णन को पढ़ कर चकित रह गया था, जिसमें कुछ दर्जन राठौरों ने प्रतिद्वंद्वी एक लाख राठौरों को तितर-बितर कर दिया था. यह एक ऐसे देश की विरासत या उसका सूचक नहीं है, जिसके लड़ाके अरबों से कमतर हों.
मैंने कुछ दिन पहले एक हैरान करनेवाली खबर पढ़ी. इसमें कहा गया था कि इसलामिक स्टेट ‘भारतीयों समेत दक्षिण एशियाई मुसलिमों को इराक और सीरिया में जारी संघर्ष में लड़ने लायक नहीं मानता और उन्हें अरबों की तुलना में हीन व्यवहार करता है.’ खबर में आगे कहा गया था कि ऐसी मान्यता के कारण ‘दक्षिण एशियाई लड़ाके आम तौर पर छोटी बैरकों में रखे जाते हैं और उन्हें मेहनताना भी अरब लड़ाकों से कम मिलता है और उन्हें हथियार भी कमतर दिये जाते हैं.’ यह सूचना विदेशी इंटेलिजेंस एजेंसियों की रिपोर्ट से मिली है, जिसे भारतीय एजेंसियों के साथ भी साझा की गयी है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ नाइजीरिया और सूडान के लड़ाके भी अरब लड़ाकों से कमतर माने जाते हैं.
मुझे नाइजीरिया और सूडान में युद्ध के इतिहास के बारे में कुछ अधिक जानकारी नहीं है. लेकिन मैं अरबों को इतना भरोसा दिला सकता हूं कि भारतीय उपमहाद्वीप के योद्धा की क्षमता का रिकॉर्ड उनसे बेहतर है.
एक तरफ तो यह अच्छी बात है कि अरब इस क्षमता का उपयोग नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उनका मकसद गलत है. लेकिन, दूसरी तरफ पाठकों को इस इतिहास में रुचि हो सकती है, ताकि रिकॉर्ड दुरुस्त किया जा सके.
इतिहास में पहली बार पेशेवर भारतीय लड़ाकों का उल्लेख ईसा पूर्व 479 में यूनान में मिलता है. इसमें प्लाटिया के युद्ध के बारे में बताया गया है, जो ईरानियों और यूनानियों के बीच लड़ा गया था. इतिहासकार हेरोडोट्स दोनों तरफ की सेनाओं की संरचना के बारे में हमें जानकारी देते हैं और ईरानी शासक जरक्सिज द्वारा भाड़े पर लाये गये भारतीय लड़ाकों की टुकड़ी का उल्लेख करते हैं. मैंने बहुत पहले यह किताब पढ़ी थी, इसलिए ठीक से नहीं बता सकता कि किसी अन्य देश से भी लड़ाके बुलाये गये थे या सिर्फ भारत से. गौरतलब है कि उस लड़ाई में ईरानियों की हार हुई थी.
भारतीय युद्धों में अपने पराक्रम के बारे में विस्तार से बताते रहे हैं. एक सदी बाद इतिहासकार एरियन ने पंजाब पर सिकंदर के हमले का वर्णन किया है. उसे गंभीर चुनौती सिर्फ वे लड़ाके दे पाये थे, जिन्हें ग्रामीणों ने हमलावरों से अपनी रक्षा के लिए भाड़े पर बुलाया था. ये लड़ाके बहुत जोरदार थे. हम इसलिए यह जानते हैं, क्योंकि सिकंदर ने उनके साथ समझौता किया और फिर धोखे से सबको मार डाला. यह कुछ उन कुछ घटनाओं में है, जब आम तौर पर सिकंदर की प्रशंसा में लिखनेवाले इतिहासकार एरियन और क्विंटस कर्टिअस रुफस उसके इस काम को नैतिक रूप से निंदनीय मानते हैं. इसी विवरण से हमें पता चलता है कि ऐसा हुआ था.
भारतीय सैनिकों ने इतिहास की कुछ सबसे रक्तरंजित लड़ाईयों में खून-खराबा किया है. बहुत लोगों को यह जानकारी होगी कि प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की के मुस्तफा कमाल अतातुर्क को ख्याति देनेवाले 1915 के गैलीपोली की लड़ाई में भारतीय सैनिक भी शामिल थे. परंतु, बहुत लोगों को यह नहीं पता होगा कि उस युद्ध की खास बात खंदक रणनीति भारत में ही विकसित हुई थी. सैन्य इतिहासकार जॉन कीगन ने अपनी किताब ‘द फर्स्ट वर्ल्ड वार’ में लिखा है, ‘पहला खंदक हमला संभवतः 9-10 नवंबर, 1914 की रात में भारतीय सेना की 39वीं गढ़वाल राइफल की टुकड़ी द्वारा किया गया था. दुश्मन की चौकियों पर रात के अंधेरे में टूट पड़ना भारतीय युद्ध की पारंपरिक विशेषता थी और यह खतरनाक छोटी पहल आदिवासी सैन्य रणनीति की पश्चिमी सेनाओं की ‘सभ्य’ युद्ध शैली में समाहित होने का एक सूचक हो सकता है.’
भारतीय लड़ाकों में साहस और निपुणता की कोई कमी नहीं रही है. इतिहासकार मैक्स हास्टिंग्स ने अपनी पुस्तक ‘कैटास्ट्रॉफेः यूरोप गोज टू वार 1914’ में लिखा है कि ‘भारतीय सिपाहियों ने अंगरेजों को गश्त करने की कला सिखायी’. फ्रांस के खंदकों में भारतीय सैनिकों की इतनी बड़ी संख्या तैनात थी कि ब्रिटिश विदेश विभाग को उनके खाने के लिए हर माह 10 हजार जीवित बकरों की आपूर्ति करने को कहा गया था’.
मुगल साम्राज्य के पतन पर चार भागों के अपने अध्ययन में इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने तीन बड़े राजपूत वंशों- सिसोदिया, कछवाहा और राठौर- की युद्ध शैली का उल्लेख किया है. हारते हुए युद्ध में भी राठौर दुश्मन की तोपों के इर्द-गिर्द अपने घोड़े दौड़ाते रहते थे. सरकार बताते हैं कि ऐसा वे इसलिए करते थे कि उन्हें लगता था कि वे अभी उतनी संख्या में नहीं मरे हैं कि सम्मान के साथ लौट सकें. राजपूतों की यह भी समस्या थी कि मुख्य रूप से वे आपस में ही लड़ते रहते थे. मैं एक युद्ध के वर्णन को पढ़ कर चकित रह गया था, जिसमें कुछ दर्जन राठौरों ने प्रतिद्वंद्वी एक लाख राठौरों को तितर-बितर कर दिया था. जाहिर है, यह एक ऐसे देश की विरासत या उसका सूचक नहीं है, जिसके लड़ाके अरबों से कमतर हों.
करीब 15 साल पहले मैंने एक अखबार में पढ़ा था कि एक बार ब्रिटिश सेना की दो टुकड़ियां एक बार में नशे में धुत होकर आपस में भिड़ गयी थीं. एक टुकड़ी के लिए यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य था, क्योंकि दूसरी टुकड़ी गोरखाओं की थी, जो अंगरेजों की तुलना में कम संख्या में थे. पर, वे बेहतर लड़ाके थे, और उन्होंने (मुझे अब तक वह पंक्ति याद है) विरोधियों का ‘सफाया’ कर दिया था.
भारतीय सैनिकों को हमेशा एक अच्छे नेतृत्व की जरूरत रही है. मुझे संदेह है कि इसलामिक स्टेट के अरब ऐसा कर पा रहे हैं, और इसके लिए ईश्वर का शुक्रगुजार होना चाहिए.
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
aakar.patel@me.com

Next Article

Exit mobile version